Book Title: Jain Siddhanta Sangraha
Author(s): Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publisher: Sadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
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४२..] जनसिदांतसंग्रह। 'करावे होय शुद्ध भावे तव मुक्ति पद कहो है॥१॥ भात्म है
मन्य और पद्दल हूं मन्य लखो अन्य मात वात पुत्र त्रिपा सब जानरे । जैसे निशिमाहि वरूहुपै खग भेलें होय, पात उड नाय औरठौर तिमि मानरे ॥ वैसे विनाशीक यह सकल पदार्थ हैं हाटमध्या नन भनेक होय मेले मानरे । इनहुने कान कछु सर न नेगो नाहिं भैया, मन्यत्वानुप्रेक्षरूप यह पहचानरे ॥ ५॥ त्वचा पळ मस्तनसानाकमलमूत्र घाम शुक्रमल रुधिर कुधातु सप्तमई है, ऐसो तन पशुचि भनेक दुर्गप भरो श्रयै नव द्वार तामें मूढ़ मतिदई है । ऐसी यह देह नाहिं नसके उदास रहो मानो जीव एक शुद्ध बुद्ध परणई हैं । पशुचि अनुप्रेक्षा यह धारे नो इसी ही भांति तनके विकार तिन मुक्तरमा गई है ॥ ६॥ .
चौपाई। मानवमनुपेक्षा हियधार | सत्तावन आश्रवके द्वार कर्माअव ये कैसे होय । ताको मेद कहुं अब सोय ॥ मिथ्यामविरतयोगकवाय । यह सत्तावन भेद कखायं बंधो फिरे इनके पाश नीव। भरसागरमें रुले सदीव । विकल्परहित ध्यान भव होय।शुभभावको कारण सोय ॥ कर्मशत्रुको करसंहार । तब पावे पंचमगति सार||}} मानवको निरोष नो ठान | सोईसम्बर करे बखान ॥ सम्बरकरसुनिरमरा होय । सोहै हय परकारहि जोय ॥ इक स्वयमेव निर्म-. रापेख । दूनी निर्भरा तपहि विशेष ॥ ८ पूर्व सकळ अवस्थाकही । संवर करमो निर्नरातही ॥ सोय निर्जरा दोपरकार | सविपाकी अविपाकीसार || सविपाकी सबनीवन होय। भविपाकी

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