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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
इसे समचतुरस्र अर्थात् चारों तरफ से समान बनाना चाहिए। ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी सात राजू परिमाण ऊँची तथा एक राजू चौड़ी है। उसके दाई और बाईं तरफ अधिक से अधिक लोक का विस्तार दो राजू परिमाण है । अगर बाएं पसवाड़े के दो भागों को उल्टा करके अर्थात् नीचे वाले भाग को ऊपर तथा ऊपर वाले को नीचे करके दाएं पसवाड़े के साथ जोड़ दिया जाय तो सब जगह बराबर दो राजू चौड़ा हो जायगा । उसके साथ
नाड़ी को मिलाने से तीन राजू चौड़ा और सात राजू लम्बा एक दण्ड बन जाता है । उसकी मोटाई ब्रह्मदेवलोक के पास पाँच राजू और दूसरी जगह कम ज्यादद्द रहेगी ।
अधोलोक में भी सनाड़ी सात राजू परिमाण है । उसके बाई और दाईं तरफ अधिक से अधिक तीन तीन राजू लोक विस्तार है। अगर उस के बाएं पसवाड़े को उल्टा करके दाई तरफ लगा दिया जाय तो तीन राजू चौड़ाई सब जगह हो जाएगी । उस में एक राजू नाड़ी मिलाने से चार राजू चौड़ा और सात राजू ऊँचा एक दण्ड बन जाता है। मोटाई में यह भाग कहीं सात राजू चौड़ा और कहीं उससे कम रहेगा ।
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चौड़ाई की तरह मोटाई को भी ऊपर लिखे अनुसार बैठाने से दोनों बराबर हो जाती हैं। इस प्रकार सात राजू लम्बा और सात राजू चौड़ा घनलोक बन जाता है। सात को तीन चार गुणा देने से ३४३ होते हैं, क्योंकि ७४७=४६ । ४६ ४७=३४३ | यही सारे लोक में घनराजुओं की संख्या है। बराबर लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई वाली वस्तु के एक तरफ के परिमाण को इस प्रकार गुणा करने से धन का परिमारण निकल आता है। यह संख्या व्यवहार को लेकर बताई गई है।
निश्चय से तो २४६ घन रज्जु होते हैं। प्रत्येक खण्ड में खण्ड