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भी मेठिया जैन ग्रन्थमान्दा
(१३) आहार भीगा हुनाहो या सूखा,ठण्डा हो या वहुत दिनों का बासी, उचाले हुए उड़दों का, पुराने अनाज का या जो वगैरह नीरस धान्य का जो भी आहार मिल जाता वे उसे शान्तिपूर्वक काम में लाते। यदि बिल्कुल नहीं मिलता तो भी सन्तोष रखते थे।
(१४) भगवान् उत्कुटुक, गोदोहनिका, वीरासन वगैरह भासनों से बैठ कर विकार रहित होते हुए धर्म ध्यान करते थे। इच्छा रहित बन कर वे श्रात्मा की पवित्रता के लिए अर्व, अधों और तियग्लोक के स्वरूप का ध्यान में विचार करते थे।
(१५) इस प्रकार कपाय रहित होफर गृद्धि को छोड़ कर, शब्दादि विषयों में अनासक्त रहते हुए भगवान् ध्यान में लीन रहते थे। छजस्थ अवस्था में भी संयम मे लीन रहते हुए भगवान ने एक बार भी रूपायादि रूप प्रमाद सेवन नहीं किया।
(१६-१७ ) अपने आप संसार की असारता को जान कर आत्मा की पवित्रता द्वारा मन, वचन और काया को अपने वश में रखते हुए भगवान् शान्त और कपट रहित होकरजीवन पर्यन्त पवित्र कार्यों में लगे रहे। । भगवान् ने इस प्रकार निरीह होकर शुद्ध संयम का पालन किया है। दूसरे साधुओं को भी इसी प्रकार करना चाहिए।
(पाचाग प्रथम श्रुतस्कन्ध ६ वा अध्ययन ४ उद्देशा) ८७६-- मरण सतरह प्रकार का
भायुप्य पूरी होने पर भात्मा का शरीर से अलग होना अथवा शरीर से प्राणों का निकलना मरण कहलाता है। इसके १७ भेद है
(१) आवीचियरण-आयुकर्म के भोगे हुए पुद्गलों का प्रत्येक क्षण में अलग होना श्रावीचिमरण है।
(२) अवधिमरण- नरफ आदि गतियों के कारणभूत आयुकर्म के पुद्गलों को एक बार भोग कर छोड़ देने के बाद जीव फिर