Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 463
________________ भGI पर उन्नीसवां बोल संग्रह 866- कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष घोडगलया य खम्भे कुड्डे माले यसवरि बहु नियले / लंबुत्तर थण उड्डी संजय खलिणे य वायस कवितु // सीसो कंपिय मूई अंगुलि भमुहा य वारुणी पेहा / एए काउसग्गे हवन्ति दोसा इगुणवीसं // ___ अर्थात्- घोटक, लता, स्तम्भकुड्य, माल, शबरी, वधू, निगड, लम्बोत्तर, स्तन, अदिका, संयती,खलीन, पायस,कपित्थ, शीर्षोत्कम्पित, मक, अंगुलिका, वारुणी, प्रेक्षा ये कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष हैं। (1) पोटक दोष- घोड़े की तरह एक पैर कोभाकुंचित कर (मोड़ कर) खड़े रहना। (2) लतादोष- तेज हवा से प्रकम्पित लता की तरह कांपना। (3) स्तम्भकुख्य दोष-खम्भेयादीवाल का सहारा लेना। (4) मालदोष- माल यानि ऊपरी भाग में सिर टेक कर कायोत्सर्ग करना। (५)शवरी दोप-वन रहित शबरी (भिल्लनी)जैसे गुह्यस्थान को हाथों से ढक कर खड़ी रहती है उसी तरह दोनों हाथ गुह्यस्थान पर रख कर खड़े रहना। (६)वधु दोष-कुलवधू की तरह मस्तक झकाकर खड़े रहना। (7) निगड़ दोष-वेड़ी पहने हुए पुरुष की तरह दोनों पैर फैला कर अथवा मिला कर खड़े रहना। (8) लम्वोत्तरदोप-भविधि से चोलपट्टे को नाभि के ऊपर

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