Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, पांचवां भाग 41 रोग उत्पन्न हुए / चिकित्सा शास्त्र में प्रवीण वैद्यों ने अनेक तरह से चिकित्सा की किन्तु उनमें से एक भी रोग शान्त नहीं हुआ। अन्त में आर्तध्यान ध्याते हुए उसने सिर्यञ्च गति का आयुष्य वाँधा तथा मर कर मूर्छा के कारण उसी बावड़ी में मेंढक रूप से उत्पन्न हुआ। उस बावड़ी के जल का उपयोग करने वाले लोगों के मुख से नन्द मणियार की प्रशंसा छन फर उस मेंढ़क को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने पूर्व भव के कार्य का स्मरण किया / मिथ्यात्व का पश्चात्ताप करके मेंढ़क के भव में भी उसने श्रावक व्रत अङ्गीकार किये और धर्म ध्यान की भावना भाते हुए रहने लगा। एक समय मेरा (भगवान् महावीर स्वामी फा) आगमन राजगृह में हुआ,उस समय पानी भरने के लिए वावड़ी पर गई हुई स्त्रियों के मुख से इस बात को सुन कर वह मेंढक सझे वन्दना करने के लिए बाहर निकला। रास्ते में मझे वन्दना करने के लिए आते हुए श्रेणिक राजा के घोड़े के पैर नीचे दव कर वह मेंढक घायल हो गया। उसी समय रास्ते के एक तरफ जाकर उसने वहीं से मुझे वन्दना नमस्कार कर संलेखना संथारा किया।शुभ ध्यान धरता हुआ वहाँ से मर फरसौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसफ विमान में दर्दुर नाम का देव हुआ है। वहॉ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और प्रव्रज्या अङ्गीकार कर मोक्ष में जायगा। इस दृष्टान्त का अभिमाय यह है कि समकित आदि गुणों को प्राप्त कर लेने पर भी यदि प्राणियों को श्रेष्ठ साधुनों की संगति न मिले तोनन्द मणियार की तरह गुणों की हानि हो जाती है। अतः भव्य प्राणियों को साधु समागम का लाभ सदा तोते रहना चाहिए।

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529