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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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की वात है। पक्खन्दे जलियं जोइं, धूमके दुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तं, कुले जाया अगंधणे ।।
अर्थात्-अगन्धन कुल में पैदा हुए साँप जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि में गिर कर भस्म हो जाते हैं किन्तु उगले हुए विष को पीना पसन्द नहीं करते।
आप तो मनुष्य हैं, महापुरुषों के कुल में आपका जन्म हुआ है फिर यह दुर्भावना कहाँ से आई ?
आपने संसार छोड़ा है। मैंने भी विषयवासना छोड़ कर महाव्रत अङ्गीकार किये हैं। श्राप और भगवान् दोनों एक कुल के हैं। दोनों ने एक ही माता के पेट से जन्म लिया है फिर भी आप दोनों में कितना अन्तर है। जरा अपनी आत्मा की तरफ ध्यान दीजिए। चर्मचक्षुओं के वजाय पाभ्यन्तर नेत्रों से देखिए । जो शरीर आपको सुन्दर दिखाई दे रहा है, उसके अन्दर रुधिर, मॉस, चर्वी, विष्टा आदि अशचि पदार्थ भरे हुए हैं। क्या ऐसी अपवित्र वस्तु पर भी आप आसक्त हो रहे हैं ? यदि आप सरीखे मुनिवर भी इस प्रकार डॉव!डोल होने लगेंगे तो दूसरों का क्या हाल होगा? जरा विचार कर देखिए कि आपके मुख से क्या ऐसी बातें शोभा देती हैं ? अपने कृत्य पर पश्चात्ताप कीजिए । भविष्य के लिए संयम में दृढ़ रहने का निश्चय कीजिए। तभी आपकी आत्मा का कल्याण हो सकेगा।
रथनेमि का मस्तक राजीमती के सामने लज्जा से झुक गया। उन्हें अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा। अपने अपराध के लिए वे राजीमती से वार बार क्षमा माँगने लगे।
राजीमती ने कहा- रथनेमि मुनिवर ! आमा अपनी आत्मा से माँगिए।पाप करने वाला व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को इतना नुक्सान नहीं पहुँचाताजितना अपनी आत्मा को पतित वनाता है। इसलिए