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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
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( 8 ) दर्शन - वस्तु को सामान्य रूप से जानने वाले उपयोग
को दर्शन कहते हैं ।
(१०) लेश्या - आत्मा के साथ कर्म का मेल कराने वाले परिणाम विशेष को लेश्या कहते हैं
1 (११) भव्यत्व - मोक्ष पाने की योग्यता को भव्यत्व कहते हैं। १२ ) सम्यक्त्व - आत्मा की अन्तर्मुखी मवृत्ति को सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद जीव बाह्य वस्तुओं की उपेक्षा करके आत्मचिन्तन की ओर झुकता है और मोक्ष की इच्छा करने लगता है । सम्यक्त्व वाला जीव तत्त्वों पर श्रद्धा करता है और सच्चे देव, गुरु और धर्म को ही मानता है । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और स्तिक्य ये पाँच उसके लक्षण हैं ।
(१३) सञ्ज्ञित्व - विशेष प्रकार की मनःशक्ति अर्थात दीर्घ काल तक रहने वाली सञ्ज्ञा (समझ या बोध) का होना सञ्ज्ञित्व है। (१४) आहारकत्व - किसी न किसी प्रकार के आहार को ग्रहण करना आहारकत्व है। आहार तीन प्रकार का है
(क) ओज आहार - उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँच कर अपर्याप्त अवस्था में तेजस और कार्मरण शरीर द्वारा जीव जिस आहार को ग्रहण करता है उसे ओजाहार कहते हैं।
(ख) लोमाहार - त्वचा और रोंगटों से ग्रहण किया जाने वाला आहार ।
(ग) कवलाहार - मुख द्वारा ग्रहण किया जाने वाला भन्न पानी आदि का आहार ।
मार्गणास्थान के अवान्तर भेद
(१) गति के चार भेद हैं- देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति ।
(२) इन्द्रिय मार्गणास्थान के पाँच भेद- एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय