Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 10
________________ (१०) में भ्रम्यो अपनपो विसरि थाप, अपनाये विधिफल पुण्य-पाप । निज को पार को करता पिछान, पर मे अनिष्टता-इष्ट ठान ।। आशुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि। तन परिणति मे आपो चितार, कवहू न अनुभवो स्वपदसार ।। तुमको बिनजाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेन। पशु नारक नर सुरगति मेंभार, भव घर-घर मर्यो अनतवार ।। -अब काललब्धि बलते दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । 'मन भात भयो मिटि सरल द्वन्द, चाख्योस्वातमरसदुखनिकद ॥ ताते अब ऐसी करहु नाथ, विछर न कभी तुम चरण साथ । तुम गुण गण को नाहि छेव देव, जगतारन को तुम विरद एव ।। आत्म के अहित विपय कपाय, इनमे मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आप मे आपलीन, सो करो हो, ज्यो निजाधीन । मेरे न चाह क्छु और ईश. रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारन सु माप, शिव करहुहरहुमम मोह ताप ।। शशि शातिकरन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । 'पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यो तुम अनुभव ते भव नशाय ।। "त्रिभुवन तिहुंकाल मेंझार कोय, नहिं तुम विन निज सुखदाय होय । -मोटर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जहाज ।। तुम गुणगणमणि गणपति, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्पमति किम कहैं, नम त्रियोग सभार ।। '(२) देव-शास्त्र-गुरु स्तुति समयसार जिन देव हैं जिन प्रवचन जिनवाणि । नियमसार निम्रन्थ गुरु करे कर्म को हानि ॥ है वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तुमको ना अब तक पहिचाना । अतएव पड़ रहे हैं प्रभुवर,. चौरासी के चक्कर खाना ।।

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