Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ ( ५ ) प्रश्न ( ६ ) - पर पदार्थों में तेरी मेरी मान्यता को छढाला की दूसरी ढाल में क्या कहा है ? उत्तर- "ऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चरण वंश, भ्रमत भरत दुःख जन्म मरण" अर्थात् मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र कहा है। प्रश्न (१०) - जिनेन्द्र भगवान ने सबसे बड़ा पाप किसे कहा है ? उत्तर - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसन से भी भयंकर पाप कहा है । प्रश्न (११ - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसनादि से भी भयकर बड़ा पाप किस जगह कहा है ? उत्तर - अरे भाई, चारों अनुयोगों में कहा है । प्रश्न (९२) - क्या आचार्यकल्प श्री टोडरमल जी ने मिथ्यात्व को सप्तव्यसनादि से भयंकर पाप कहीं कहा है । उत्तर - हां कहाँ है देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १९१ में लिखा है "हे भव्य ! faचितमात्र लोभ व भय से भी कुदेवादि का सेवन न कर ! कारण कि इससे अनन्तकाल तक महान दुःख सहना पड़ता है इसलिए मिथ्यात्व भाव करना योग्य नहीं है । जैनधर्म में तो ऐसी आम्नाय है- पहले मोटा पाप छुड़ाकर पीछे छोटा पाप छुड़ाया है इसलिए मिथ्यात्व को सात व्यसनादि से भी महान पाप जान पहले छुड़ाया है"

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 211