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प्रश्न ( ६ ) - पर पदार्थों में तेरी मेरी मान्यता को छढाला की दूसरी ढाल में क्या कहा है ?
उत्तर- "ऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चरण वंश, भ्रमत भरत दुःख जन्म मरण" अर्थात् मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र कहा है।
प्रश्न (१०) - जिनेन्द्र भगवान ने सबसे बड़ा पाप किसे कहा है ? उत्तर - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसन से भी भयंकर पाप कहा है ।
प्रश्न (११ - मिथ्यात्वादि को सप्तव्यसनादि से भी भयकर बड़ा पाप किस जगह कहा है ?
उत्तर - अरे भाई, चारों अनुयोगों में कहा है ।
प्रश्न (९२) - क्या आचार्यकल्प श्री टोडरमल जी ने मिथ्यात्व को सप्तव्यसनादि से भयंकर पाप कहीं कहा है ।
उत्तर - हां कहाँ है देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १९१ में लिखा है "हे भव्य ! faचितमात्र लोभ व भय से भी कुदेवादि का सेवन न कर ! कारण कि इससे अनन्तकाल तक महान दुःख सहना पड़ता है इसलिए मिथ्यात्व भाव करना योग्य नहीं है ।
जैनधर्म में तो ऐसी आम्नाय है- पहले मोटा पाप छुड़ाकर पीछे छोटा पाप छुड़ाया है इसलिए मिथ्यात्व को सात व्यसनादि से भी महान पाप जान पहले छुड़ाया है"