Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 03
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 14
________________ को धर्मबुद्धि से लिखना-लिखाना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना उसे अगहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं वे एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तन्वों की यथार्थता नहीं है इसलिये जो शास्त्र शुभभावों से भला होता है, या शुभभाव करते करते धर्म की प्राप्ति होती है. निमित्त से उपादान में कार्य होता है आदि बातो को बताये वह कुशास्त्र है। सर्वथा एक पक्ष को मानना गृहीत मिथ्याज्ञान है। प्रश्न (२०)-अगृहीत मिथ्याचारित्र किसे कहते हैं ? उत्तर -."इन जुत विपयनि में जो प्रवत, ताको जानो मिथ्या चरित्त' अर्थात् अगृहीत मिथ्यादशन और अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित पांच इन्द्रियों के विषयो में प्रवृत्ति करना उसे प्रगृहीत-मिथ्याचारित्र कहते है। प्रश्न (२१)-गृहीत मिथ्याचारित्र किसे कहते है ? उतर - “जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह प्रातम अनातम के ज्ञान हीन, जे जे करनी तन करन छीन" अर्थात् शरीरादि और आत्मा का भेद ज्ञान न होने से जो यश, धन, सम्पत्ति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की क्रियाय करता है उसे गृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं। प्रश्न (२२)-मापने संक्षेप में मिथ्यादर्शन तो बताया अब संक्षेप में मिथ्याज्ञान किसे कहते हैं ?

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