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किरण १]
जैन-मूर्तियाँ खण्डगिरि-उदयगिरि का पुरातत्त्व भी जिन-मूर्ति के प्राचीन अस्तित्व का द्योतक है। ईस्वी पहली शताब्दी में मथुरा में वह प्राचीन स्तूप मौजूद था जो उस समय 'देवनिर्मित' समझा जाता था और जिसे डॉ. बुल्हर तथा सर विन्सेन्ट स्मिथ ने भगवान् पार्श्वनाथ के समय अर्थात् ईस्वी के पूर्व आठवीं शताब्दी का बताया था। जैनस्तूप पर मूर्तियां बनी होती हैं, यह बात जैनशास्त्रों और मथुरा के स्तूपावशेषों से स्पष्ट है। अतः भ० पार्श्वनाथ जी के समय में भी जिन-प्रतिमा का होना सिद्ध है। प्राचीन काल में जिनमूर्तियों के होने का समर्थन खण्डगिरि-उदयगिरि के प्रसिद्ध हाथीगुफावाले शिलालेख से भी होता है, जिसमें लिखा है कि एक नन्द राजा कलिङ्ग से अनजिन की प्रतिमा को मगध ले गया था, उसे कलिङ्गचक्रवर्ती ऐल खारवेल्लु वापस कलिङ्ग ले आये थे। नन्दकाल में जो प्रतिमा खूब प्रसिद्धि पा चुकी थी, उसका एक काफी समय पहले निर्मित होना सुसङ्गत है। अतः यह उल्लेख भी जिनमूर्ति के प्राचीन अस्तित्व का पोषक है।
किन्तु प्रश्न यह है कि प्राचीनकाल में जिन-मूर्तियां किस ढंग की बनती थीं ? इस विषय पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन संप्रदाय की मान्यता भिन्न है ; यद्यपि वे दोनों जिन प्रतिमा को उक्त प्रकार प्राचीन मानने में एकमत हैं। दिगम्बरों की मान्यता है कि जिनप्रतिमा शुभलक्षण युक्त नासाग्र दृष्टिमय और श्रीवत्सचिह्न से अङ्कित नग्न शृङ्गार-वस्त्ररहित होना चाहिये। श्वेताम्बरों की मान्यता इससे विलक्षण है। उनका मत है कि प्राचीन जिन-प्रतिमाओं पर न वस्त्रलांछन होता था और न स्पष्ट नग्नत्व ही ! उनके इस कथन से कुछ भी भाव स्पष्ट नहीं होता। उस पर प्राचीन जिन-प्रतिमाओं के विषय में
१ Jaina Stupa and other antiquities of Mathur, p. 13. २ जनल आव विहार एण्ड ओड़ीसा रिसर्च सोसाइटी भाग १३ पृष्ट ३ "कक्षादिरोमहीनांगस्मश्र लेशविवर्जितं ।
स्थितं प्रलम्बितं हस्तं श्रीवत्साढ्य दिगम्बरं ॥ पल्वंकासनकं कुर्वाच्छिल्पिशास्त्रानुसारतः ।
निरायुधं च निस्त्रीक 5 संपादिविवर्जितं ॥ इत्यादि ॥"-जिनयज्ञकल ४ "पुचि जिणपडिमाणं नगिणत्त नेव नवि अ पल्लवओ।
तेणं नागाटेणं भेओ उभएसि संभूओ॥"-प्रवचनपरीक्षा 'प्रवचनपरीक्षा की उक्त गाथा उस कथा के प्रकरण में है जिसमें गिरिनार और शत्रुजय पर दिगम्बर और श्वेताम्बरों के बीच झगड़ा होने का कथन है। उसमें यह भी कहा गया है कि 'आगे