Book Title: Jain Satyaprakash 1939 09 SrNo 50
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीन सत्य in [ १४ ] = -[१५५ टीका-उत्सेधाङ्गलत्रिकं नरमुखपरिमाणं, ४०० गुणने २४ भाग च ५० हस्ता जायन्ते । तथा चत्वार्यङ्गलानि पश्चविंशतिभागीकृताङ्गलशतद्वयं च ४२३ तुम्बकबुध्नपरिमाणं ज्ञेयम् , यतः सल्लक्षणं तुम्बकमेतावन्मात्र भूमौ लगति, असल्लक्षणानि तु तुम्बकानि हीनाधिक-बुध्नान्यपि भवन्ति । तच्च ४३च बुध्नपरिमाणं ४०० गुणितं सत् षण्णवत्या धनुरङ्गलैर्भज्यते १७धनूंषि लभ्यन्ते । __अनुवाद-विदेह-क्षेत्र के पुरुष का मुख तीन उत्सेधाङ्गुल का होता है, यह उन्हीं के अङ्गल से जानना चाहिये । उसमें ४०० को गुणा करने और उसमें २४ का भाग देने से भरतक्षेत्रीय पुरुष के ५० हाथ हुए । विदेह-क्षेत्र के मनुष्यों के भोजन-पात्र का परिमाण १०२ अङ्गल का होता है-जिसमें चार अङ्गलवाले २५ का भाग देने पर ४३२ बुध्नपरिमाण हुआ। यदि ४३५ बुध्न-परिमाण को ४०० से गुणा करें और उसमें ९६ का भाग दें तो १७ धनुष का उनके पात्र-तल का परिमाण हुआ, जो भरत-क्षेत्र के पुरुषाङ्गल से समझना चाहिये। विदेहक्षेत्रका मुखवस्त्रिका परिमाण मूल-मुहणंतपण तेसिं, सहिसहस्सा य एगलक्खा य । भरहस्सय साहूणं, एयं मुहणंतयं माणं ॥३॥ टीका-एकस्यां विदेहमुखवत्रिकायां भरतक्षेत्रसाधुमुखवत्रिकातुल्यविस्तारा यदि चीरकाः क्रियन्ते, तदा चत्वारि शतानि चीरकाणां भवन्ति । एकैकस्मिश्च चीरके चत्वारि शतानि मुखवत्रिका भवन्ति । अतो विस्तारसत्कानि चत्वारि शतानि यथायामसत्कैश्चतुर्भिः शतैर्गुण्यन्ते तदा १६०००० मुखवस्त्रिका उत्सेधाङ्गलेनाऽध्युष्टहस्तप्रमितदेहानां भरतसाधूनां योग्या भवन्तीति भद्रम् । इति विचारपत्रकम् । ___ अनुवाद-महाविदेहक्षेत्र के साधुओं की एक मुखवत्रिका में भरतक्षेत्र के साधु की मुखवत्रिका के समान विस्तारवाले यदि खंड किये जायँ तो ४०० खंड होते हैं और एक एक एक खंड में ४०० मुखवत्रिकाएँ होती हैं। इसलिये विस्तारसत्क४०० को आयामसत्क ४०० से गुणा करने पर १६०००० मुखवस्त्रिका आठ हाथ शरीरवाले भरतक्षत्र के साधुओं की होती हैं। शमिति। . विक्रम की १८ वीं, या उसके बाद की शताब्दी में अंचलगच्छीय श्रीहर्षनिधानसरिने 'रत्नसंचयप्रकरण' नामक ग्रन्थ संग्रहित किया हैजिसमें कुल ५४८ प्राकृतभाषामय गाथाओं का संग्रह और वह जुदे जुदे सूत्र-ग्रन्थों से उद्धृत है। प्रस्तुत तीनों गाथाएँ मूलमात्र उसी संग्रहित प्रकरण में गाथा नं. ४०५,४०६,४०७ पर दर्ज हैं। रत्तसंचयप्रकरण की मुद्रित पुस्तक में गाथाओं का गुजराती भाषा में भावार्थ भी दिया हुआ है। परन्तु उससे भी तीनों गाथाओं की प्रस्तुत संस्कृत व्याख्या में विशेष स्पष्टीकरण किया गया है, जो पाठकों के सामने है। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54