Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ इन लेखोंको पढ़ते हुए पाठकोंको ज्ञात होगा, कि इनके निर्माण में लेखक को कितने अधिक श्रम, गम्भीर चिन्तन, अनुभवन, मनन, एवं शोध-खोज से काम लेना पड़ा है । यद्यपि श्री मुख्तार सा० की लेखनशैली कुछ लम्बी होती है पर वह बहुत जंची-तुली, पुनरावृत्तियों से रहित और विषयको स्पष्ट करने वाली होनेसे अनुसंधान-शिक्षार्थियोंके लिए अतीव उपयोगी पड़ती है और सदा मार्ग-दर्शकके रूपमें बनी रहती है। इन लेखोंसे अब हमारे इतिहासकी कितनी ही उलझने सुलझ गई है। साथ ही अनेक नये विषयोंके अनुसंधान का क्षेत्र भी प्रशस्त हो गया है। कितने ही ऐसे ग्रथोंके नाम भी उपलब्ध हुए हैं, जिनके कुछ उद्धरण तो प्राप्त हैं, पर उन ग्रंथोंके अस्तित्वका अभी तक पता नहीं चला । नाम-साम्य को लेकर जो कितनी ही भ्रान्तियां उपस्थित की जा रही थीं या प्रचलित हो रही थीं, उन सबका निरसन भी इन सब लेखोंसे हो जाता है। यद्यपि हमारा विशाल प्राचीन साहित्य कई कारणोंसे बहुत कुछ नष्टभ्रष्ट हो चुका है, फिर भी जो कुछ अवशिष्ट और उपलब्ध है, उसमे भी साहित्य इतिहास और तत्त्वज्ञानकी अनुसन्धान-योग्य बहुत कुछ सामग्री सन्निहित है, अत: उस परसे हमे प्राचीन साहित्यादिके अनुसंधान करनेकी बहुत बड़ी प्रावश्यकता है। यह कार्य तभी संभव हो सकता है, जबकि हम सर्व प्रथम अपने प्राचार्योका समय निर्धारित कर लेवें । तत्पश्चात् हम उनके साहित्यसे आने इतिहास, संस्कृति और भाषा-विज्ञानके सम्बन्ध में प्रनेक अमूल्य विषयोंका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अतः हमें उन विलुप्त ग्रंथोंकी खोजका भी पूरा यत्न करना होगा, तभी सफलता मिल सकेगी। ___ भारतके प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलालजी नेहरूने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि 'अगर कोई जानि अपने साहित्य उन्नयनकी उपेक्षा करती है तो बड़ी से बड़ी धन-राशि भी उस जाति ( Nation ) के उत्कर्षमें सहायक नहीं हो सकती है । साहित्य मनुष्यकी उन्नतिका सबसे बड़ा साधन है । कोई राष्ट्र, कोई धर्म अथवा कोई समाज साहित्य के बिना जीवित नहीं रह सकता, या यों कहिये कि साहित्यके बिना राष्ट्र धर्म एवं समाजकी कल्पना ही असंभव है। सुप्रसिद्ध विद्वान् कार्लाइलने कहा है, कि 'ईसाई

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 280