________________
रसेन्द्रिय के पांच विषय और साठ विकार हैं - तिक्त, कटु, कषायला, अंबिला और मधुर ये पाँच विषय हैं। ये पांच सचित, अचित और मिश्र = कुल पन्द्रह विकार हैं। पन्द्रह शुभ और पन्द्रह अशुभ = ३० विकार हुए। तीस पर राग और तीस पर द्वेष भाव होना ही साठ विकार हैं।
__ स्पर्शेन्द्रिय के आठ विषय और छियानब्बें (९६) विकार हैं - गुरु, लघु, मृदु, खर, शीत-उष्ण, स्निग्ध और रुक्षा ये आठ विषय सचित, अचित और मिश्र रूप चौबीस विकार हैं। चौबीस शुभ और चौबीस अशुभ दोनों मिलकर अड़तालीस विकार हैं। अड़तालीस पर राग और अड़तालीस पर द्वेष होना ही छियानब्बें विकार हैं।
इस प्रकार पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय और दो सौ चालीस विकार हैं। इन विषयविकारों से प्राप्त सुख अनन्त संसार बढ़ाता है। इन्द्रिय जनित सुख मोहदावानल की वृद्धि में इंधन रूप है। यह विघ्नों का बीज, विपत्ति का मूल, पराधीन एवं भय का स्थान है। कालकूट विष सरसों जैसा है और विषयविकार का विष सुमेरूपर्वत जैसा है।८८ एकेक इंन्द्रियों के वश बने हुए जीवों की कैसी दुर्दशा होती है? पतंग चक्षुरिन्द्रिय के वश में पड़कर दीपज्योति में प्राण त्याग देता है। भ्रमर घ्राणेन्द्रिय के वश हो कर संध्या वेला में कमल में संकुचित (बंद) होकर मर जाता है। मत्स्य रसेन्द्रिय के वश जाने से गलफास से मृत्यु प्राप्त करता है। हाथी स्पर्शेन्द्रिय के वश होकर गड्ढे में गिरकर मौत के शरण जाता है। हरिण श्रोतेन्द्रिय के वश होने से मधुर स्वर श्रवण करते हुए शिकारी के तीक्ष्ण बाणों का शिकार बनता है। एकेक इन्द्रिय के वश बने हुए प्राणी की यह स्थिति तो पांचों ही इन्द्रियों के वश बने हुए प्राणियों की क्या स्थिति होगी?८९ संयमी साधक इन्द्रियों के विषयविकार
और मन की चंचलता को ब्रह्मचर्यादि प्रक्रिया द्वारा वश करता है। ब्रह्म का अर्थ - शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानन्दमय परमात्मा में लीन होना ही ब्रह्मचर्य है। आत्मानुभूति का आस्वादन करना ही ब्रह्मचर्य है। विषयविकारों के वशीभूत होकर जीवात्मा संसार के नाना विषयों में
और स्त्री के मोह में पड़कर दुःख उठाता है। जो साधक स्त्रियों के संग से बचता है उनके रूप को नहीं देखता है तथा उनकी कथा आदि भी नहीं करना, मन वचन काय और कृतकारित अनुमोदना के भेद से नवधा प्रकार का ब्रह्मचर्य होता है। जिनशासन में शील के अठारह हजार भेदों का कथन है। स्त्री के दो प्रकार माने गये हैं - अचेतन और चेतन। अचेतन स्त्री के तीन भेद हैं -लकड़ी, पत्थर एवं रंगादि से बनाई हुई।इन तीनों भेदों को मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन छह से गुणा करने पर अठारह भेद होते हैं। उनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर १८४५= नब्बे भेद होते हैं। इन्हें द्रव्य और भाव से गुणा करने पर ९०४२-एक सौ अस्सी भेद होते हैं। उनको क्रोधादि चार कषायों से गुणा करने पर १८०४४ सात सो बीस भेद होते हैं। ये अचेतन स्त्री के ७२० भेद हैं। चेतन
२७६
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org