Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 587
________________ एकत्व वितर्क विचार - शुक्ल ध्यान का भेद, अर्थ, व्यंजन, योग की संक्रान्ति से रहित केवल एक द्रव्य, गुण या पर्याय का चिन्तवन। एकावली तप - विशेष आकार की कल्पना से किया जानेवाला तप। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है - एक परिपाटी (क्रम) में १ वर्ष २ महिने और २ दिन का समय लगता है। इसकी ४ परिपाटी होती हैं। कुल ४ वर्ष ८ महिने और ८ दिन का समय लगता है। प्रथम परिपाटी के पारणे में विकृति का वर्जन आवश्यक नहीं होता है। दूसरी में विकृति-वर्जन, तीसरी में लेप त्याग और चौथी में आयंबिल आवश्यक होता है। एकाशन- जिस नियम विशेष में एक आसन में स्थिर होकर जो भोजन किया जाता है वह एकाशन है; अथवा दिन में एक बार आहार ग्रहण करना एकाशन कहलाता है। एकेंद्रिय - वे जीव, जिनके एकेंद्रिय जाति नाम कर्म का उदय होता है, और जिन में एक स्पर्शन इंद्रिय (त्वचा) ही पाई जाती है। ___ एषणा समिति - कृत, कारित एवं अनुमोदना दोषों से रहित दूसरों के द्वारा दिए गए प्रासुक व प्रशस्त भोजन को ग्रहण करना एषणा समिति है। एवंभूत नय - जो द्रव्य जिस प्रकार की क्रिया से परिणत हो, उसका उसी प्रकार से निश्चय कराने वाले नय को एवंभूत नय कहते हैं। ओज आहार - जन्म के समय जो सर्वप्रथम आहार ग्रहण किया जाता है, वह ओज आहार है। औदारिक शरीर - जिस शरीर को तीर्थंकर आदि महापुरुष धारण करते हैं, जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, जो औदारिक वर्गणाओं से निष्पन्न मांस, हड्डी आदि अवयवों से बना होता है, स्थूल है आदि, वह औदारिक शरीर कहलाता है। औदारिक मिश्र - प्रारंभ किया हुआ औदारिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक वह कार्मण शरीर के साथ औदारिक मिश्र कहलाता है। औद्देशिक - परिव्राजक, श्रमण, निग्रंथ आदि को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्त्र अथवा मकान। औत्पातिक बुद्धि - अदृष्ट, अश्रुत व अनालोचित ही पदार्थों को सहसा ग्रहण कर कार्यरूप में परिणत करनेवाली बुद्धि। औपशमिक भाव - मोहनीय कर्म के उपशम से होनेवाला भाव। औपशमिक सम्यक्त्व - दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों के उपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। अथवा - अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक कुल सात प्रकृतियों के उपशम से जो तत्त्व रुचि व्यंजक आत्म परिणाम प्रगट होता है। वह औपशमिक सम्यक्त्व है। ५२६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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