Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 596
________________ छेवट्ट संहनन - जिस हड्डियों की रचना में मर्कटबंध, वेष्टन और कील न होकर यों ही हड्डियां आपस में जुड़ी हों, उसे छेवट्ट संहनन कहते हैं। छेवट्ट को सेवा अथवा छेदवृत्त भी कहते हैं। जघन्य बंध - सबसे कम स्थिति वाला बंध। जंघाचारण स्थिति - अष्टम (तेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। इस लब्धि का धारक पद्मासन लगाकर जंघा पर हाथ लगाता है, और तीव्र गति से आकाश में उड़ जाता है। तिर्यक् दिशा की एक ही उड़ान में वह तेरहवें रुचकवर द्वीप तक पहुँच सकता है। यह द्वीप भरत क्षेत्र से असंख्यात योजन दूर है. पुनः लौटता हुआ रास्ते में नंदीश्वर द्वीप में एक बार विश्राम लेता है। यह प्रथम उड़ान शक्तिशाली होती है। यदि वह उड़ान ऊर्ध्व दिशा की ओर हो तो वह एक ही छलांग में मेरुपर्वत के पाण्डुक उद्यान में पहुंच सकता है और पुनः लौटते समय नंदनवन में एक बार विश्राम लेता है। इस लब्धि वाला तीन बार आँख की पलक झपके जितने समय में एक लाख योजन वाले जंबूद्वीप में २१ बार चक्कर लगा सकता है। ___ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति - जिसमें जंबूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए विविध प्रकार के मनुष्य तिर्यंच जीवों का तथा पर्वत, ग्रह, नदी, वेदिका, वर्ष आवास आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप - इस विराट विश्व में असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप घेरे हुए हैं। जंबूद्वीप उन सब के बीच में है। यह पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एक-एक लाख योजन है। इसमें सात वर्ष-क्षेत्र हैं - (१) भरत (२) हेमवत (३) हरि (४) विदेह (५) रम्यक् (६) हैरण्यवत् (७) ऐरवत। भरत दक्षिण में, ऐरवत उत्तर में और विदेह (महा-विदेह) पूर्व व पश्चिम में हैं। जरायु - गर्भ में प्राणी के शरीर को आच्छादित करने वाला विस्तृत जो रुधिर, मांस रहता है, वह जरायु है। जो जरायु में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज कहलाते हैं। जाति भव्य - जो भव्य मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसको प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उन्हें ऐसी अनुकूल सामग्री नहीं मिल पाती है जिससे मोक्ष प्राप्त कर सकें। जातिस्मरणज्ञान - पूर्व जन्म की स्मृति करानेवाला ज्ञान। यह मतिज्ञान का ही एक भेद है। इस ज्ञान के बल पर व्यकित एक से नौ पूर्व जन्मों को जान सकता है। एक मान्यता यह भी है कि, जातिस्मरण ज्ञान से प्राणी को अपने ९०० पूर्व भवों का स्मरण हो सकता जिन - जयतीति जिनः। स्वरूपीय लब्धि में बाधक राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि भाव कमों को एवं ज्ञानावरणादि रूप घाति द्रव्य कर्मों को जीतकर अपने अनन्तज्ञान दर्शन आदि आत्म-गुणों को प्राप्त कर लेने वाले जीव जिन कहलाते हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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