Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 605
________________ पादोपगमन - अनशन का वह प्रकार, जिसमें श्रमणों द्वारा दूसरों की सेवा का और स्वयं की चेष्टाओं का त्याग कर पादप-वृक्ष की तरह निश्चेष्ट होकर रहना। इसमें चारों प्रकार के आहार का त्याग होता है। यह निर्हारिम और अनिर्हारिम रूप से दो प्रकार का है। पाप - जिसके उदय से जीव को दुःख की प्राप्ति हो और आत्मा को शुभ कार्यों से पृथक रखे उसे पाप कहते हैं। पाप अशुभ प्रकृति रूप है और अशुभ योगों से बंधता है। पारिणामिक भाव - जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो किन्तु स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। अथवा कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले द्रव्य की स्वाभाविक अनादि पारिणामिक शक्ति से ही आविर्भूत भाव को पारिणामिक भाव कहते हैं। पाँच दिव्य - तीर्थंकर, विशिष्ट महापुरुष या केवलियों के आहार ग्रहण करने के समय प्रकट होनेवाली पाँच विभूतियाँ (१) विविध रत्न (२) वस्त्र (३) फूलों की वर्षा (४) गंधोदक और (५) देवताओं के द्वारा दिव्य घोष। पिंड प्रकृति - अपने में अन्य प्रकृतियों को गर्भित करनेवाली प्रकृति। पुण्य - जिसके उदय से, जीव को सुख का अनुभव होता है, उसे द्रव्यपुण्य और जिस कर्म के उदय से जीव में दया, करुणा, दान, भावनादि शुभ परिणाम आते हैं, उसे भाव पुण्य कहते हैं। पुण्य शुभ प्रकृति रूप है और शुभयोग से बंधता है, अथवा जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है। पुण्यकर्म - जो कर्म सुख का वेदन कराता है। पुण्य प्रकृति - जिस प्रकृति का विपाक -फल शुभ होता है। पुद्गल परावर्त - ग्रहण योग्य आठ वर्गणाओं (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजसशरीर, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन, कार्मण वर्गणा) में से आहारक शरीर वर्गणा को छोड़कर शेष औदारिक आदि प्रकार से रूपी द्रव्यों को ग्रहण करते हुए एक जीवद्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का स्पर्श करना। पुद्गलविपाकी प्रकृति - जो कर्म प्रकृति पुद्गल में फल प्रदान करने के सन्मुख हो अर्थात् जिस प्रकृति का फल आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करे। औदारिक आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किए गए पुद्गलों में जो कर्म प्रकृति अपनी शक्ति को दिखाए, वह पुद्गलविपाकी प्रकृति है। पूर्व - चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है। पूर्वांग - चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है। पूर्वानुपूर्वी - जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो या जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, उसकी उसी क्रम से गणना करना। प्रकृति - कर्म के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650