Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 607
________________ आलोचना और प्रतिक्रमण (४) विवेक - अनजान में आधाकर्म दोष से युक्त आहारादि आ जाए तो ज्ञात होते ही उसे उपयोग में न लेकर उसका त्याग करना (५) कायोत्सर्गएकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग करना। (६) तप -अनशन आदि बाह्य तपा (७) छेद - दीक्षा पर्याय को कम करना। इस प्रायश्चित के अनुसार जितना समय कम किया जाता है, उस अवधि में दीक्षित छोटे साधु दीक्षा पर्याय में उस दोषी साधु से बड़े हो जाते हैं। (८) मूल - पुनर्दीक्षा (९) अनवस्थाप्य - तप विशेष के पश्चात् पुनर्दीक्षा (१०) पाराञ्चिक - संघ बहिष्कृत साधु द्वारा एक अवधि विशेष तक साधुवेष परिवर्तित कर जन-जन के बीच अपनी आत्मनिंदा करना। पिण्डस्थ ध्यान - शरीर में अवस्थित आत्मा का ध्यान, प्रमेय की प्रधानता को सन्मुख रखकर किया हुआ ध्यान; इसमें वस्तु का आलम्बन होता है। (पिंड =शरीर) इसके अंतर्गत ५ धारणाएँ हैं- (१) पार्थिवी (२) आग्नेयी (३) श्वसना (वायवी) (मारुती) (४) वारुणी और (५) तत्त्ववती। पौषध - एक अहोरात्र के लिए चारों प्रकार के आहार और पाप पूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग करना। बन्ध - मिथ्यात्व आदि कारणों द्वारा काजल से भरी हुई डिबिया के समान पौद्गलिक द्रव्य से परिव्याप्त लोक में कर्मयोग्य पुद्गल वर्गणाओं का आत्मा के साथ नीर-क्षीर अथवा अग्नि और लोहपिंड की भांति एक दूसरे में अनुप्रवेश-अभेदात्मक एक क्षेत्रावगाह रूप संबंध होने को बंध कहते हैं। अथवा -आत्मा और कर्म परमाणुओं के संबंध विशेष को बंध कहते हैं। अथवा अभिनव नवीन कमों के ग्रहण को बंध कहते हैं। बंधकाल - परभव संबंधी आयु के बंधकाल की अवस्था। बंधस्थान - एक जीव के एक समय में जितनी कर्म प्रकृतियों का बंध एक साथ (युगपत्) हो उनका समुदाय। बंध हेतु - मिथ्यात्व आदि जिन वैभाविक परिणामों (कर्मोदय जन्य आत्मा के परिणाम क्रोध आदि) से कर्म योग्य पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाता है। बंधन करण - आत्मा की जिस शक्ति-वीर्य विशेष से कर्म का बंध होता है। बादर - जो जीव बादर नामकर्म के उदय से बादर शरीर में रहते हैं अर्थात् जो काटने से कट जाए, छेदने से छिद जाए, भेदने से भिद जाएं, अग्नि में जल जाए, छद्मस्थ के भी दृष्टिगोचर हो, उसे बादर कहते हैं। इसके भी पाँच भेद हैं : पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। बादर अद्धा पल्योपम - बादर उद्धार पल्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशाग्र निकालने पर जितने समय में वह खाली हो, उतने समय को बादर अद्वापल्योपम कहते हैं। ५४६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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