Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 614
________________ विराधक - जो व्रत ग्रहण किए हैं, उनका सम्यक् रूप से पालन नहीं करने वाला तथा दुष्कृत्यों की आलोचना कर प्रायश्चित करने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाला। विशेषबन्ध - किसी खास गुण स्थान या किसी खास गति आदि को लेकर जो बंध कहा जाता है उसे विशेषबन्ध कहते हैं। विसंयोजना - प्रकृति के क्षय होने पर भी पुनः बंध की संभावना बनी रहे। विद्याचारण - षष्ठ (बेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। इसकी शक्ति प्रारंभ में कम, बाद में अधिक होती है। वह यदि तिरछे लोक में उड़ान भरे तो आठवें नंदीश्वर द्वीप तक जा सकता है। नंदीश्वर द्वीप जाते समय उसे बीच में मानुषोत्तर पर्वत पर विश्राम लेना पड़ता है; और दूसरी उड़ान में वह नंदीश्वर द्वीप पहुंचता है। परंतु लौटते समय उसे विश्राम की आवश्यकता नहीं होती। इसी प्रकार ऊर्ध्व दिशा की ओर उड़ान भरते समय पहले नंदनवन में विश्राम लेकर दूसरी उड़ान में पांडुक वन पहुंचता है। उसे लौटते समय विश्राम की आवश्यकता नहीं होती। इस लब्धि वाला तीन बार आंख की पलक झपके जितने समय में एक लाख योजनवाले जंबूद्वीप में ३ बार चक्कर लगा सकता है। विहायोगति - जिस कर्म के उदय से जीव की चाल हाथी, बैल आदि की चाल के समान शुभ अथवा ऊंट, गधे की चाल के समान अशुभ होती है, उसे विहायोगति कहते वीर्यांतराय - वीर्य याने पराक्रम। जिस कर्म के उदय से जीव शक्तिशाली और निरोग होते हुए भी कार्य विशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति सामर्थ्य का उपयोग न करे, उसे वीर्यांतराय कहते हैं। वीरासन - पाटे पर बैठकर दोनों पैर जमीन से लगा लिए जाएं और पाटा हटा लेने पर उसी प्रकार अधर बैठा रहना वीरासन है। वेद - जिसके द्वारा इंद्रियजन्य, संयोगजन्य सुख का वेदन किया जाए, अथवा मैथुन सेवन करने की अभिलाषा को वेद कहते हैं। अथवा वेद मोहनीय कर्म के उदय, उदीरणा से होने वाले जीव के परिणामों का सम्मोह (चंचलता) जिससे गुण-दोष का विवेक नहीं रहता। वेदक सम्यक्त्व - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में विद्यमान जीव जब सम्यक्त्व मोहनीय के अंतिम पुद्गल के रस का अनुभव करता है, उस समय के उसके परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। इसके बाद जीव को क्षायिक सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है। वेदनीय कर्म - जिस कर्म के द्वारा जीव को सांसारिक इंद्रिय जन्य सुख-दुःख का अनुभव हो, वह वेदनीय कर्म कहलाता है। इसके दो भेद हैं- १) सातावेदनीय, २) असातावेदनीय। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650