Book Title: Jain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Author(s): Priyadarshanshreeji
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 626
________________ स्थिति बंध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गलों में अमुक समय तक अपने अपने स्वभाव का त्याग न कर जीव के साथ रहने की काल-मर्यादा का होना स्थिति बंध है। स्थितिबंध अध्यवसाय - कषाय के उदय होने वाले जीव के जिन परिणाम विशेषों से स्थितिबंध होता है, उन परिणामों को स्थितिबंध अध्यवसाय कहते हैं। स्थितिस्थान - किसी कर्म प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के भेद। स्पर्द्धक - वर्गणाओं के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं। स्पर्श - जिस कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श, कर्कश, मृदु, स्निग्ध, रुक्ष आदि रूप हो, उसे स्पर्श कहते हैं। हुह - चौरासी लाख हह - अंग का एक हह होता है। हुहु अंग - चोरासी लाख अवव की संख्या। हेतुविपाकी - पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक - फलानुभव होता है। ज्ञान - जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत, वर्तमान और भविष्य संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण और पर्याय को जाने। अथवा सामान्य विशेषात्मक वस्तु में से उनके विशेष अंश को जानने वाले आत्मा के व्यापार को ज्ञान कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म - जो कर्म आत्मा के ज्ञान, गुण को आच्छादित करें, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं। (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण (४) मनःपर्यायज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण। ज्ञानोपयोग - प्रत्येक पदार्थ को उन-उनकी विशेषताओं की मुख्यता से विकल्प करके पृथक-पृथक ग्रहण करना। __ ज्ञाताधर्म कथा - जिस अंग श्रुत में उदाहरणभूत पुरुषों और उनके नगर, उद्यान एवं चैत्य आदि का कथन किया गया है, वह ज्ञाताधर्म कथा है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650