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पीछे से उदय में आने वाले होते हैं, उनको प्रयत्न - विशेष से उदयावली में लाकर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा कहलाता है। अथवा उदयकाल को प्राप्त नहीं हुए कर्मों का आत्मा के अध्यवसाय विशेष प्रयत्नविशेष से नियत समय से पूर्व उदय-हेतु उदयावली में प्रविष्ट करना, अवस्थित करना या नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना अथवा अनुदयकाल को प्राप्त कर्मों को फलोदय की स्थिति में ला देना।
उद्वर्तना - बद्ध कमों की स्थिति और अनुभाग में स्थिति विशेष, भावविशेष और अध्यवसाय विशेष के कारण वृद्धि हो जाना।
उद्वलन - यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों के बिना ही किसी प्रकृति को अन्य प्रकृति रूप परिणमना।
उद्धार पल्य - व्यवहार पल्य के एक-एक रोमखंड के कल्पना के द्वारा असंख्यात कोटि वर्ष के समय जितने खंड करके उन सब खंडों को पल्य में भरना उद्धारपल्य कहलाता है।
___उर्ध्वलोक - मध्यलोक के ऊपर जो खड़े किए हुए मृदंग के समान लोक है, वह उर्ध्वलोक है।
उपचय - गृहित कर्म पुद्गलों के अबाधाकाल को छोड़कर आगे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का स्वरूप से सिंचन करना, क्षेपन करना उपचय है। ___उपपात - देव और नारकों का जन्म उपपात कहलाता है।
उपपात जन्म - उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले पहल शरीररूप में परिपात करना उपपात जन्म कहा जाता है।
उपभोग परिभोग वत-अन्न,पान,खाद्य,स्वाद व गंध माला आदि (उपभोग) तथा वस्त्र, अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान और वाहन आदि (परिभोग) बहुत पापजनक वस्तुओं का सर्वथा परित्याग करना तथा अल्प सावद्य वस्तुओं का प्रमाण करना।
उपभोगांतराय - उपभोग की सामग्री होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से उस सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे उपभोगांतराय कर्म कहते हैं, जो पदार्थ बार-बार भोगे जाए उन्हें उपभोग कहते हैं, जैसे मकान, वस्त्र, आभूषण आदि।
उपयोग - चेतना का व्यापार-विशेष ज्ञान और दर्शन। अथवा-जीव का बोध रूप व्यापार अथवा जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य और विशेष स्वरूप जाना जाता है; अथवा आत्मा के चैतन्यानुविधायी परिणाम को उपयोग कहते हैं।
उपवास - अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं का त्याग करना।। उपशम - आत्मा में कारणवश कर्म का फल देने की शान्ति के प्रकट न होने को
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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