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गति का वर्णन है - तिर्यंचगति, नरक गति, देवगति और मनुष्यगति इन चारों गति में मनुष्य गति ही श्रेष्ठ है जिसके द्वारा मोक्ष को प्राप्त किया जाता है। चार गति के अनुसार ही चार ध्यान का वर्णन है। संसार के सभी प्राणी आर्त-रौद्र ध्यान तो सतत करते ही रहते हैं जिसके फलस्वरूप तिर्यंचगति और नरकगति में सतत परिभ्रमण करना पड़ता है। परन्तु ध्यानयोग धर्म शुक्लध्यान की साधना से साधक देवगति और मनुष्यगति में परिभ्रमण करता है और शुक्लध्यान से मोक्ष प्राप्त करता है। १८८ जैन धर्मानुसार ध्यान साधना की परम्परा
जैन धर्म की ध्यान साधना परम्परा को हम तीन विभागों में विभाजित कर सकते हैं- १. आगम युग (प्राचीन युग) २. योग युग (मध्य युग) और ३. वर्तमान युग।
आगम युग आगम युग में ध्यान की मौलिक पद्धति क्या थी? इसका उत्तर हम अपने क्षयोपशम के अनुसार करेंगे।
भगवान महावीर से लेकर आचार्य कुन्दकुन्द तक के काल में ध्यान की मौलिक पद्धति उपलब्ध होती है। भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में अधिकांश भाग ध्यान साधना में ही बिताया। उनकी शिष्यसंपदाओं में कितनेक शिष्यों को 'ध्यानकोष्ठोपगत' विशेषण लगाया हुआ है। १८९ इससे स्पष्ट होता है कि उस समय भी ध्यान परंपरा थी। आगमकालीन ध्यान पद्धति का अनुसन्धान करने से स्पष्ट होता है कि उस समय 'कायोत्सर्ग', 'भावना', 'अप्रमत्त' और 'समत्व' शब्द मिलते हैं। कायोत्सर्ग जड़ चेतन के भेदज्ञान का प्रथम बिन्दु है। महावीर ने साधना कालीन जीवन में अनेक उपसर्ग परीषह सहन किये; किन्तु घबराये नहीं। स्थान स्थान पर कायोत्सर्ग ध्यान' ९० में खड़े रहकर भेदविज्ञान का चिंतन करते रहे, जिससे वेदना का अनुभव नहीं हुआ। आगम में एकत्व भावना ९१ के फलस्वरूप रागद्वेषरहित एकमात्र आत्मा के चिन्तन द्वारा शरीर के ममत्व का त्याग और चित्तवृत्तियाँ (मन की चंचलता) का निरोध करना ही ध्यान है। अप्रमत्त अवस्था ही धर्मध्यान और शुक्लध्यान की स्थिति है। भगवान महावीर ने घरों में, सभाओं में, वनों में, दुकानों में, लुहार शााला में, चौक में, ग्राम के बाहर, श्मशान भूमि एवं वृक्ष के नीचे एवं अन्य बस्तियों के स्थान में निरंतर अप्रमत्त स्थिति में लीन रहकर समाधिपूर्वक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लीन रहे। १९२ भगवान महावीर ने अपने साधनाकालीन जीवन में देव, मनुष्य, तिर्यच संबंधी अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग-परीषहों को समभाव से सहन किया।१९३ इन चार शब्दों के अन्तर्गत ही प्राचीन ध्यान की मौलिक पद्धति स्पष्ट होती है। ध्यानकोष्ठोपगत विशेषण से सम्पन्न महावीर कालीन साधक कोठे
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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