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परिशिष्ट 'ख'
पारिभाषिक शब्दावली अंतःकरण - गुण दोष के विचार एवं स्मरणादि व्यापारों में जो बाह्य इंद्रियों की अपेक्षा नहीं ररनता है; जो चक्षु आदि इंद्रियों के समान बाह्य में दृष्टिगोचर भी नहीं होता, ऐसे अभ्यंतर करण (मन) को अंतःकरण कहते हैं।
___ अंतकृत् - जो अष्ट कर्मों को नष्ट कर, सिद्ध पद प्राप्त करते हैं, वे अंतकृत् कहलाते हैं।
अंतकृत् दशांग - प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होने वाले १०-१० अंतकृत् केवलियों का वर्णन जिसमें किया गया है, वह अंतकृतदशांग है।
अंग - तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट और गणधर द्वारा ग्रथित सूत्र (श्रुत)
अंगप्रविष्ट - भगवान के द्वारा कथित अर्थ की गणधरों के द्वारा जो आचारादिरूप से अंगरचना की जाती है। अथवा जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर स्वयं करते हैं।
अंगबाह्य - गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यादि उत्तरवर्ती आचार्यों के द्वारा अल्पबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ की गई संक्षिप्त अंगार्थ रचना। अथवा -गणधरों के अतिरिक्त अंगों का आधार लेकर स्थविरों द्वारा प्रणीत शास्त्र।
अंगोपांग नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव के अंग और उपांग आदि रूप में गृहित पुद्गलों का परिणमन होता है।
अंतरंग क्रिया - स्वसमय और परसमय के जानने रूप ज्ञान क्रिया को अंतरंग क्रिया कहते हैं।
अंतरात्मा - जो आठ मदों से रहित होकर देह और जीव के भेद को जानते हैं, वे अंतरात्मा हैं। अथवा-सकर्म अवस्था में भी ज्ञानादि उपयोग स्वरूप शुद्ध चैतन्यमय आत्मा में, जिन्हें आत्मबुद्धि प्रादुर्भूत हुइ है, वे अंतरात्मा कहलाते हैं। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर १२ वें गुणस्थान तक के गुण इनमें होते हैं।
___ अंतःशल्य - जिसके अंतःकरण में अपराध रूपी काँटा चुभ रहा है, किंतु लज्जा व अभिमान आदि के कारण जो दोष की आलोचा नहीं करता है, वह साधु अंतःशल्य है। ___अकर्म भूमि - जहाँ असि, मसि, कृषि आदि न हो, किन्तु कल्पवृक्षों से निर्वाह होता हो, उन्हें 'अकर्म भूमि' कहते हैं। अकर्मभूमि तीस हैं। उनमें से एक हैमवत, एक हैरण्यवत, एक हरिवर्ष, एक रम्यकवर्ष, एक देवकुरू और उत्तरकुरू - ये छह जम्बूद्वीप में हैं और इससे द्विगुण-बारह धातकी खण्ड द्वीप में और बारह अद्धपुष्कर द्वीप में हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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