________________
को मध्यम और परमयोग को उत्कृष्ट कहते हैं। आठ भेदों को इन भेदों के साथ गुणा करने से (८×३) चौबीस भेद होते हैं। इन चौबीस भेदों को 'प्रणिधान' (अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति), 'समाधान' ( शुभ कार्यों में प्रवृत्ति), 'समाधि' (रागद्वेष में मध्यस्थ भाव ) और 'काष्ठा' (मन की एकाग्रता से उच्छ्वास आदि का निरोध) इन चार भेदों के साथ गुणा करने से (२४४४=९६) ९६ भेद भवनयोग के होते हैं। प्रणिधानादि के लिये क्रमशः प्रसन्न चंद्र राजर्षि, भरतचक्रवर्ती, दमदंतमुनि व पुष्पभूति आचार्य के दृष्टान्त हैं।
ये ही ९६ भेद 'करणयोग' के भी हैं। अब करण के ९६ भेद कहते हैं- १. मन, २. चित्त, ३. चेतना, ४. संज्ञा, ५. विज्ञान, ६. धारणा, ७. स्मृति, ८. बुद्धि, ९. ईहा, १०. मति, ११. वितर्क और १२. उपयोग ।
चिन्तन यह मन का खुराक है। चिन्तन का अभाव वह मन का अनशन है। चिन्ता (चिन्तन) के अभाव से जिसका मन ( चंचलता) नाश हुआ; ऐसी अवस्था को 'उन्मनी करण' कहते हैं। यह उन्मनीकरण जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन प्रकार का है। यदि तीनों का मिश्रण हो तो चौथा प्रकार भी समझना चाहिए। जैसे 'करण' के चार भेद हैं वैसे ही 'भवन' के भी चार भेद हैं। यथा- उन्मनीकरण, महोन्मनीकरण परमोन्मनीकरण, सर्वोन्मनीकरण, उन्मनीभवन, महोन्मनीभवन, परमोन्मनीभवन और सर्वोन्मनीभवन ये आठ भेद मन के हैं। चित्तादि प्रत्येक के आठ-आठ भेद हैं, जैसे कि निश्चितीकरण, महानिश्चित्तीकरण, परम निश्चित्तीकरण, सर्वनिश्चित्तीकरण, निश्चित्तीभवन, महानिश्चित्तीभवन, परमनिश्चित्तीभवन और सर्व निश्चित्ती भवन। ऐसे ही 'चेतना' निश्चेत्तीकरणादि के आठ भेद, 'संज्ञा' निःसंज्ञी करणादि के आठ भेद, 'विज्ञान' निर्विज्ञानीकरणादि के आठ भेद, 'धारणा' निर्धारणीकरणादि के आठ भेद, 'स्मृति' विस्मृतिकरणादि के आठ भेद, 'बुद्धि' निर्बुद्धीकरणादि के आठ भेद, 'ईहा ' निरीहीकरणादि के आठ भेद, 'मति' निर्मतिकरणादि के आठ भेद, 'वितर्क' - निर्वितकरणादि के आठ भेद, 'उपयोग' - निरूपयोगी करण के आठ भेद- इस प्रकार इन बारह वस्तुओं के चार करण और चार भवन के साथ गुणा करने से (१२x४ x ४ = ९६) ९६ भेद करण के होते हैं। यहाँ पर जघन्य के लिये उन्मनीकरण, मध्यम के लिये महोन्मनीकरण, उत्कृष्ट के लिये परमोन्मनी करण और चौथे प्रकार के लिये सर्वोन्मनीकरण है।
४४२३६८ ध्यान के भेद : करण के ९६ भेदों का 'ध्यान परम ध्यान' आदि २४ प्रकारों के साथ गुणाकार करने से २३०४ भेद होते हैं । २३०४ भेदों का 'करणयोग' के साथ गुणा करने से २२११८४ भेद होते हैं। ऐसे ही २३०४ भेदों का 'भवनयोग' के
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
४२०
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org