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[बहत्तर]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ साधुओं के आचारगत दोषों का वर्णन करता है। निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के (निर्ग्रन्थों के अनुयायी) श्रावक का गृहस्थ पुत्र था। किन्तु मुनि श्री कल्याणविजय जी ने उसके साथ 'निर्ग्रन्थ' शब्द जुड़ा होने से उसे निर्ग्रन्थ-साधु मान लिया और निर्णय दे दिया कि 'सच्चक' श्वेताम्बर जैन साधु था, क्योंकि यदि वह दिगम्बरजैन साधु होता, तो अचेलत्व और पणितलभोजित्व का उपहास नहीं करता। मुनि जी का यह निर्णय समीचीन नहीं है, क्योंकि सच्चक निर्ग्रन्थ साधु नहीं था, अपितु निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का श्रावक था, यह उसके निर्ग्रन्थपुत्र विशेषण से ही स्पष्ट है। दूसरे, उसने आजिविक साधुओं के अचेलकत्व और पाणितलभोजित्व की निन्दा नहीं की, अपितु स्वेच्छाचार एवं भोजन करते समय हाथ चाटने आदि अशोभनीय प्रवृत्तियों की निन्दा की है। इसके अतिरिक्त दीघनिकायपालि (भाग १) के महासीहनादसुत्त में अचेल काश्यप अचेल (नग्न निर्ग्रन्थ) साधु होते हुए भी आजिविक साधुओं के उक्त आचार की निन्दा करते हैं। इससे अचेल काश्यप का सचेल श्वेताम्बर साधु होना सिद्ध नहीं होता। (देखिये, अध्याय ४/ प्र. २ / शी. ९, १०, ११)। तथा मुनि कल्याणविजय जी का यह कथन भी समीचीन नहीं है कि बौद्धसाहित्य में कहीं भी जैनश्रावकों को 'निगण्ठ' शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। निगण्ठपुत्त शब्द सच्चक के निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रावकपुत्र होने का ही सूचक है, क्योंकि मुनियों के पुत्र नहीं होते। जातक अट्ठकथा (तृतीयभाग) की चूलकालिङ्ग-जातकवण्णना में भी निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय के श्रावक को निर्ग्रन्थ शब्द से एवं श्राविका को निर्ग्रन्थी शब्द से अभिहित किया गया है। (देखिये, अध्याय ४/प्र.२ / शी. १२)।
श्वेताम्बरमुनि श्री नगराज जी ने धम्मपद-अट्ठकथा की निगंठवत्थु एवं कुण्डलकेसित्थेरीवत्थु में तथा थेरीगाथा-अट्ठकथा की भद्दाकुण्डलकेसा-थेरीगाथावण्णना में वस्त्रधारी निर्ग्रन्थों की चर्चा होने की बात कही है, किन्तु यह सत्य नहीं है। इन तीनों कथाओं में 'निगण्ठ' शब्द के साथ 'वस्त्रधारी' विशेषण नहीं है। धम्मपद-अट्ठकथा की निगंठवत्थु अट्ठकथा में तो स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि ये निर्ग्रन्थ ह्रीकौपीनाङ्ग (लज्जाजनक गोपनीय अंग) को प्रच्छादित नहीं करते। (देखिये, अध्याय ४/प्र.२/ शी. १६, १७)। ___ इस प्रकार बौद्धसाहित्य में श्वेताम्बरमुनियों को कहीं भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। सुत्तपिटक-खुद्दकनिकाय के ही अशोककालीन (अथवा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचित) अपदान नामक ग्रन्थ में श्वेताम्बर साधुओं के लिए सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र) संज्ञा प्रयुक्त की गयी है। (अध्याय ४/प्र.२ / शी. १, २)। वैदिक पुराणों में भी उनके लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। श्वेताम्बरसाधु का वर्णन केवल शिवमहापुराण में मिलता है। उसमें उन्हें 'निर्ग्रन्थ' शब्द से अभिहित
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