Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 9
________________ अङ्क ४] वनवासियों और चैत्यवासियोंके सम्प्रदाय । १०३ मठोंके स्वामी द्रव्यजिनलिङ्गधारी अर्थात् मठा- स्त्रियोंसे चरणप्रक्षालन कराते थे, सचित्र पुष्प, धीश दिगम्बर मुनि हैं। ____ पत्र, घी, दूध, जल, केसर आदिसे चरणोंका ___ इनके विषयमें ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि वे पूजन, स्नपन और लेपन कराते थे, सोने म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध चाँदी आदिसे चरण पुजवाते थे, सदैव एक आचरण करनेवाले हैं । 'तच्छायया आर्हतगति- स्थानमें रहते थे, शीतकालमें अँगीठीका सहारा प्रतिरूपेण' पद देकर वे इस बातको भी स्पष्ट लेते थे, पयालके बिछौनेपर सोते थे और कर देते हैं कि वे वस्त्रधारी भट्टारक नहीं, किन्तु तैलकी मालिश कराते थे, तरह तरहकी ओषअर्हन्त भगवानके समान दिगम्बर मुद्रा धारण धियाँ पास रखते थे, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रवाद, करनेवाले हैं। धातुवाद आदिके प्रयोग करते थे, पालकियों ____टीकामें जो पहला श्लोक उद्धृत किया गया पर चढ़ते थे, कपड़ेके जूते पहनते थे, पीतल है, वह बड़े ही महत्त्वका है । उसका अभिप्राय ताँबा आदि धातुओंके कमण्डलु रखते थे, यह है कि जिनभगवानके निर्मल शासनको चटाई और लज्जा निवारण करनेके लिए वस्त्र भ्रष्टचरित्र पण्डितों और वठर मुनियोंने मलीन रखते थे जो कभी कभी पहना जाता था और कर दिया है। इसके भीतर वह 'आह' छुपी हुई जिसे धोबीसे धुलाते तथा रँगाते भी थे। पुस्तकहै जो जिनधर्मके सच्चे स्वरूपको समझनेवालोंके पुस्तिका-कपरिका-स्थपनिका-पुस्तकपट्ट-योगपट्टहृदयोंमें उसकी दुर्दशा देखकर उठा करती है। आसनपट्ट-तृणपटी आदि और भी अनेक प्रका___ अनगारधर्मामृतकी टीका विक्रम संवत् रकी चीजें रखते थे । १३०० में लिखी गई है और उन्होंने जो श्लोक इस प्रकारके आचरणोंको लक्ष्य करके ही उद्धृत किया है वह उनसे भी पहलेके किसी. शायद पं० आशाधरने उन्हें म्लेच्छोंके समान विद्वानकी रचना है। इससे यह बात निश्चय- आचरण करनेवाला लिखा है। शतपदीकी रचना पूर्वक कही जा सकती है कि विक्रम संवत भी अनगारधर्मामृतसे केवल ६ वर्ष पहले १३०० के बहुत पहले मठपतियोंकी संस्था हुई थी। स्थापित हो चुकी थी और वह इतनी विस्तृत श्रुतसागरसरि नामके एक भट्टारक विक्रमकी हो गई थी, कि उसके कारण जैनधर्म मलिन सोलहवीं शताब्दिमें हो गये हैं। उन्होंने षट्हो गया था। - पाहुड़की संस्कृत टीकामें लिखा है कि-"कलौ विक्रम संवत् १२९४ में श्रीमहेन्द्रसूरि नामके किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वा उपद्रवं यतीनां एक श्वेताम्बराचार्यने 'शतपदी' नामका एक कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वाग्रन्थ लिखा है, उसमें 'दिगम्बर-मत-विचार ' मिना चर्यादिबेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरनामका एक अध्याय है । उसमें दिगम्बर सम्प्र- माच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चति इत्युदायके तत्कालीन साधुओंको लक्ष्य करके जो पदेशः कृतः संयमिनां, इत्यपवादवेषः । ” कुछ लिखा है उससे भी पण्डित आशाधरके अर्थात् “ कलिकालमें म्लेच्छ ( मुसलमान ) वचनोंकी पुष्टि होती है । महेन्द्रसूरिके कथना- आदि यतियोंको नग्न देखकर उपद्रव करते हैं, नुसार उस समयके दिगम्बर साधु मठोंमें मन्दि- इस कारण मण्डपदुर्ग (मांडू ) में श्रीवसन्तरोंमें रहते थे, आर्यिकायें भी वहाँ रहती थीं, * देखो, जैनहितैषी भाग७, अंक ९ में शतपदीके वे कभी कभी उनसे भोजन भी बनवा लेते थे, विस्तत अवतरण और उनका अनुवाद ।Page Navigation
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