Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 33
________________ अङ्क ४] दुष्पाप्य और अलभ्य जैनग्रंथ । १९७ दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रंथ। देखने पर भी हमें उनमें इसके अस्तित्वका पता नहीं चला । यह ग्रंथ दक्षिणदेशके किसी ११ राद्धान्त । भंडारमें जरूर होगा । अतः विद्वानोंको इस श्रीचामुंडराय ( रणरंगसिंह ), अपने 'चारि- ग्रंथरत्नकी उधर शीघ्र खोज करनी चाहिये। वसार' नामक ग्रंथके अन्तमें, एक पद्य इस १२ सिद्धान्तसार । प्रकारसे देते हैं:-- श्रीजयशेखरसूरिविरचित : पदर्शनसमुच्चय' "तत्त्वार्थराद्धान्तमहापुराणे नामक एक श्वेताम्बर ग्रंथके निम्न वाक्योंसे ध्वाचारशास्त्रषु च विस्तरोक्तम् । मालूम होता है कि 'सिद्धान्तसार ' नामका आख्यात्समासादनुयोगवेदी भी कोई दि० जैनग्रंथ है चारित्रसारं रणरंगसिंहः ॥” और वह बड़ा ही कर्कश तर्कग्रंथ है। इस पद्यसे मालूम हाता है कि राद्धान्त स्याद्वादविद्याविद्योतात्प्रायः साधर्मिका अमी। नामका भी कोई जैनग्रंथ है जिसे ११ वीं परमष्टसहस्री या न्यायकैरवचंद्रमाः ॥ २८ ॥ शताब्दीके विद्वान् चामुंडरायने अवलोकन किया सिद्धान्तसार इत्याद्यास्तकाः परमकर्कशाः । था, और न सिर्फ अवलोकन ही किया था तेषां जयश्रीदानाय प्रगल्भंते पदे पदे ॥ २९ ॥ बल्कि उन्होंने चारित्रविषयक उसका कछ सार मालूम नहीं यह ग्रंथ भी कौनसे आचार्यका भी खींचकर अपने उक्त ग्रंथमें रक्खा है । यह बनाया हुआ है और कब बना है। हाँ, इतना ग्रंथ किस भाषामें रचा गया है, इस बातका जरूर है कि यह ग्रंथ राजशेखरसूरिके अस्तित्वयद्यपि ऊपरके पद्यसे कोई पता नहीं चलता तो समयसे, अर्थात् वि० संवत् १४०५ से पहलैका भी श्रीवीरनन्दीके 'आचारसार ' ग्रंथमें इसका बना हुआ है । राजशेखरके अतिरिक्त और 'एक पद्य 'उक्तं च राद्धान्ते' इस वाक्यके किस किस विद्वानने इस ग्रंथका उल्लेख किया है साथ उदधत पाया जाता है, जिससे ग्रंथका और आजकल कहाँ कहाँके भंडारोंमें यह ग्रंथ भाषासम्बंधी विषय बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता पाया जाता है, ये सब बातें विद्वानोंके खोज है । वह पय इस प्रकार है: करने योग्य हैं। ' सिद्धान्तसार ' नामके और स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं भी कुछ ग्रंथ जान पड़ते हैं, जिनमें एक ग्रंथ न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । जिनचन्दसूरिका बनाया हुआ है, जिसका मंगप्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः लाचरण इस प्रकार है:प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः ॥ जीवगुणठाण सण्णा पज्जति पाणमग्गणाणवुणे। . इससे मालूम होता है कि ग्रंथकी भाषा सिद्धान्तसारमिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ॥१॥ स्कत है. वह एक सिद्धान्तप्रतिपादक ग्रंथ यह ग्रंथ प्राकृत भाषाका है और इसकी है और उसकी प्रतिपादनशैली उसके महत्त्व- गाथाओंकी कुल संख्या ७७ है, ऐसा हमें सेठ शाली होनेका प्रमाण दे रही है । मालूम नहीं, माणिकचंदजी जे०पी०बम्बईके ' 'प्रशस्तिसंग्रह' यह ग्रंथ कौनसे आचार्यका बनाया हुआ है, नामके रजिस्टरसे मालूम हुआ है। ऊपर उद्कब बना है, कितने श्लोकपरिमाण इसकी धृतकी हुई इसकी मंगलाचरण और प्रतिज्ञासंख्या है और इस समय यह किस जगहके विषयक गाथासे जान पड़ता है कि यह नर्क. भंडारमें मौजूद है। अनेक भंडारोंकी सूचियाँ ग्रंथ नहीं है और इस लिए यह उस 'सिद्धान्त

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