Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ जैनहितैषी [ भाग १४ सार' ग्रंथसे भिन्न जान पड़ता है जिसका उल्लेख जाता है कि यह ग्रंथ जिनचंद्रके उक्त प्राकृत राजशेखरसूरिने अपने ग्रंथमें किया है। इस ग्रंथसे भिन्न है । परंतु सकलकीर्तिके 'सिद्धाग्रंथके कर्ता कौनसे जिनचंद्रसूर हैं और उन्होंने न्तसारदीपक' और नरेंद्रसेनके 'सिद्धान्तसारकब इस ग्रंथको बनाया है, यह भी अभी तक संग्रह ' से भी भिन्न है या कि नहीं, ऐसा कुछ . हमको मालूम नहीं हुआ । एक जिनचंद्र श्री- भी मालूम नहीं होता । संभव है कि यह इन कुंदकुंदाचार्यक्ते समकालीन कहे जाते हैं। यदि दोनों से ही कोई ग्रंथ हो और सूचीमें भूलसे यह उन्हींका ग्रंथ है तो विशेष महत्त्वका और केवल 'सिद्धान्तसार ' ऐसा नाम लिखा गया अच्छा प्राचीन ग्रंथ होगा और इसे शीघ्र हो, अथवा यह भी संभव है कि यह वही तर्कमाणिकचंद-ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित कर देना ग्रंथ हो जिसका राजशेखर सूरिने उल्लेख किया चाहिये । आरा सिद्धान्तभवनकी सूची में इस है। अतः भवनके मंत्री साहबको इसका भी नामके तीन ग्रन्थोंका उल्लेख पाया जाता है। निर्णय प्रकट करना चाहिये। हमें अफसोस है एकको 'जिनेंद्रदेवाचार्य' का बनाया हुआ कि सिद्धान्तभवनकी सूची इतनी असावधानी लिखा है और उसकी श्लोकसंख्या ८० दी है, और लापरवाहीसे तय्यार की गई मालूम होती ग्रंथकी भाषा आदिका साथमें कोई उल्लेख नहीं। है कि उस पर एकदम कोई विश्वास नहीं किया संभव है कि यह ग्रंथ वही जिनचंद्रसूरिका जा सकता और इस लिये हमको बारबार मंत्री बनाया हुआ प्राकृत ग्रंथ हो जिसके मंगलाचरण- साहबको तकलीफ देनेकी जरूरत पड़ती है । का ऊपर उल्लेख किया गया है और उसके हमने हितैषीके पहले अंकों में भी उनसे कुछ ग्रंथकर्ताका नाम सूचीमें देते हुए कुछ भूल हुई दर्याफ्त किया था जिसके उत्तरका कष्ट उठानेहो । इसका निर्णय सिद्धान्तभवनके मंत्री साह- की अभी तक उन्होंने कोई कृपा नहीं की। हम बको प्रगट करना चाहिये । दूसरा ग्रंथ भट्टारक आशा करते हैं कि मंत्री साहबं अब अवश्य सकलकीर्तिका बनाया हुआ प्रकट किया है। अपने पदके कर्तव्य पर आरूढ़ होंगे और उनकी परंतु तब उसका नाम 'सिद्धान्तसार' न सूचीपरसे जो जो भ्रम उत्पन्न होते हैं उन्हें पूर्ण होकर सिद्धान्तसारदीपक' होना चाहिये। उद्योगके साथ दूर करनेकी चेष्टा करेंगे। अथवा क्योंकि सकलकीर्तिके ग्रंथका प्रायः यही नाम यों कहिये कि समाजको अपना साहित्यविषयक है । ऐसे ही एक 'सिद्धान्तसारसंग्रह' नामका इतिहास तय्यार करने और जैनग्रंथोंका उद्धार ग्रंथ ' नरेन्द्रसेन ' आचार्यका बनाया हुआ है, करनेके लिये भवनसे जो कुछ सहायता मिल परंतु हमें खालिस ‘सिद्धान्तसार' नाम सकती है उसके देनेके लिये वे तय्यार रहेंगे। देखना है । अस्तु; इस नामके तीसरे ग्रंथपर, भवनमें, अधिक नहीं तो दो तीन सालके लिये, उक्त सूचीमें, ग्रंथकर्ताका कोई नाम ही नहीं एक ऐसे कनड़ी जाननेवाले विद्वानकी मुस्तकिल दिया जिससे कुछ निश्चय किया जाता। सिर्फ तौरसे रखनेकी जरूरत है जो कनड़ी लिपि इतना सूचित किया है कि ग्रंथकी भाषा संस्कृत, अथवा कनड़ी भाषाके ग्रंथोंपरसे, उन्हें देखकर पत्रसंख्या १४३ और लिपि कनड़ी है । और आवश्यक सूचनाएँ दे सके और फुर्सतके वक्तमें साथ ही यह प्रगट किया है कि वह कागज पर बराबर उनका संग्रह करता रहे । साथ ही एक लिखा हुआ है । इससे इतना तो मालूम हो दो ऐसे लेखकोंके भी रक्खे जानेकी जरूरत है.

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