Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 45
________________ अङ्क ५] लिखितका मुद्रितसे मीलान । लिखितका मद्रितसे मीलान । ५-लिखित प्रतिमें 'इच्चाइगुणा' नामकी गाथा श्रीमान सेठ माणिकचंद हीराचदजी जे० पी० नं० ५० के बाद यह वाक्य दिया हैबम्बईके पुस्तकालयमें वसुनन्दि-उपासकाध्ययन ___ " अतो गाथाषटू भावसंग्रहग्रंथात् ।" (वसनन्दिश्रावकाचार) की एक परानी इस्त.. इससे मालूम होता है कि अगली छह लिखित प्रति है जो अपनी आकतिसे लगभग गाथाए 'भावसग्रह' ग्रथस उद्धृत का हुई है। तीनसौ वर्षकी लिखी हुई मालूम होती है। इस कौनसे भावसंग्रहसे उदधृत की गई हैं यह पुस्तप्रतिका हमने बसनन्दि श्रावकाचारकी उस कानुपलब्धिके कारण अभी तक मालूम नहीं मुद्रित प्रतिके साथ जो मीलान किया जिसे हो सका । परंतु मुद्रित प्रतिमें यह वाक्य न बाबू सरजभानजी वकील देववंदने, एक दूसरी होनेसे वे गाथाएँ अभी तक वसुनन्दी आचार्यमराठी अनुवादवाली मुद्रित प्रतिपरसे, संवत् की ही समझी जाती हैं। १९६६ में छपाकर प्रकाशित किया था तो ६-लिखित प्रतिमें 'रयणप्पसक्कर' इत्यादि दोनोंमें परस्पर कुछ महत्त्वको लिये हुए भेद गाथानं० १७२ के बाद निम्न गाथा अधिक पाया गया, जिसे हम पाठकोंके अवलोकनार्थ दी हैनीचे प्रकट करते हैं: " पढमाए पुढवीए वाससहस्साई दहजहण्णाऊ । १-मुद्रित प्रतिमें 'अइथलथलथूलं' समयम्मि वणिया सायारोवमं होइ उकिसं ॥१७३॥" नामकी १८ वीं माथा अधिक है। लिखितम ७-मदित प्रतिकी गाथा नं० २०४ से पहले इसका अस्तित्व नहीं। 'इय जो ' ये शब्द लिखित प्रतिमें अधिक हैं २-मुद्रित प्रतिकी २२ वीं गाथाका पूर्वार्ध [पूवाध और इनको मिलाकर पढ़नेसे छपी हुई प्रतिकी लिखितप्रतिमें कुछ भिन्न दिया है। दोनों इस इस गाथा ठीक हो जाती है । प्रकार हैं:'गोणसमयस्स एए कारणभूया जिणेहिं णिहिट्टा-'२१॥ ८-छपी हुई प्रतिकी गाथा नं० २३७ के -लिखित। 'आवस्ससच्छाइ' पदके स्थानमें लिखित 'एदे कारणभूदा निच्छपरूवा जिणेहिं णिदिवा ॥ २२॥' प्रतिमें 'आगमसच्छाइ ' पद दिया है । और -मुद्रित। नम्बर गाथाका गलतीसे वही रक्खा है । हस्तलिखितप्रतिमें 'ताणपवेसो...... .-मटित प्रतिमें गाथा नं० ३६७ के बाद ('णाणपवेसो' गाथा नं० ३८) इत्यादि गाथा , i० ३७ के बाद 'उक्तं च' रूपसे यह गाथा. परिमें नहीं है " जो नीचेकी आधी गाथा दी है वह लिखित दी है जो छपी हुई प्रतिमें नहीं है'अण्णाणं पविसंता दिता ओगासमस्यमस्सोर्सि। * काऊण अह एवं तराणि रइयरणगेसु चत्तारि।" मिलताविय निचं सगसगभावं णवि चयंति ॥३८॥' १०-मुदित प्रतिमें गाथा नं० ३७३ का ४-छपी हुई प्रतिकी ‘संवेओ णिव्वेओ' पूर्वार्ध नहीं दिया । लिखितमें उसका पूर्वार्ध वह इत्यादि-गाथा नं० ४९ का उत्तरार्ध लिखितप्र- दिया है जो ऊपर नं. ९ में गाथा नं० ३६७ तिसे एकदम विभिन्न है, यथा- के बाद अधिक बतलाया है । मालूम होता है मु०-वच्छल्लं अणुकंपा अढगुणा हुँति सम्मत्ते ॥ कि यह छापेमें कम्पोजको विभाजित करनेवा--. लि०-पूयां अ वस्यजननं अरुहाईणं पयत्तेण ॥ लोंकी भूल हुई है । अन्यथा उसका हिन्दी १ स्तुति, ऐसा टिप्पणीमें दिया है। अनुवाद यथास्थान दिया गया है ।

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