Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ अङ्क ५] विविध प्रसङ्ग । विविध प्रसङ्ग । ( लेखक - श्रीयुत नाथूराम प्रेमी । ) १ प्राचीन पुस्तकों का मूल्य । प्राचीनता के हम सबसे बड़े भक्त हैं । उसके पीछे हम सदा ही पागल बने रहते हैं । जो कुछ ज्ञान-विज्ञान, विद्या - बुद्धि, धर्म-कर्म, शौर्यवीर्य था, सो सब प्राचीनकालमें था । हमारी समझमें प्राचीनता ही सर्वश्रेष्ठताकी कसौटी है । परंतु उस परमोत्कृष्ट प्राचीनताकी इस मौखिम महिमा - या बातूनी पूजा-अर्चाके सिवाय हम और क्या सेवा प्रतिष्ठा करते हैं, यह समझमें ही नहीं आता । पहले प्राचीन ग्रन्थों या शास्त्रोंको ही ले लीजिए । कहिए, हम लोग उनकी क्या इज्जत करते हैं? वे भण्डारोंमें पड़े पड़े सड़ रहे हैं, दीमक और चूहे सेवा हैं और परिणमनशील काल उन्हें धीरे धीरे अपने विशाल उदरदेशमें डालकर नाम शेष कर रहा है। यही हमारी प्राचीन भक्ति और प्राचीनताकी पूजा है ! अब जरा उधर पाश्चात्य देशोंकी ओर देखिए । हमारी समझमें वे कोरे वर्तमान और भविष्यत्के पुजारी हैं, उनकी समझमें ज्ञान-विज्ञान आदि की उन्नति प्राचीनकालकी अपेक्षा इस समय और इस समयकी अपेक्षा आगामी कालमें अधिकाधिक होनेवाली है । प्राचीनता उनकी दृष्टिमें एक कौतुककी, प्रदर्शिनी में रखने की और संसारकी उन्नतिका एक क्रमबद्ध इतिहास तैयार करने की सामग्रीकी अपेक्षा और कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती; फिर भी प्राचीन चीजोंको वे कितना बहुमूल्य समझते हैं, यह जानकर आश्चर्य होता है । एक समाचार पत्र ( The Literary Digest ) से मालूम हुआ कि अभी एक बहुत ही मामूली नाटककी एक प्रतिको एक १४१ अमेरिकन धनने ३०००० रुपया देकर खरीद किया है । इस पुस्तककी विशेषता यह है कि अँगरेजीमें यह सबसे पहले छपा हुआ नाटक है ! मुद्रित साहित्य के इतिहास में यह एक बहुमूल्य 'चीज' होगी और इसके पास रखनेका सम्मान उक्त अमेरिकनको मिलेगा । ( Book of Hours) नामकी एक मध्ययुगकी पुस्तक १९८०० पौण्डमें बेची गई है ! प्रसिद्ध यूनानी पण्डित अरस्तू ( अरिस्टाटल ) की एक सम्पूर्ण ग्रन्थावली जो सन् १४८३ में रची गई थी २९०० पौण्डमें बिकी है । इस पुस्तकके कवर पेजपर अरस्तूका एक सुन्दर चित्र है । सन् १३३६ से १३४२ के बीच में लिखी हुई नावेरकी रानी द्वितीय 'जेनीका जीवनकाल' नामक एक और पुस्तक ११८०० पौण्डमें बिकी है । इसमें छोटे छोटे ७५ चित्र हैं । दिग्विजयी बादशाह तैमूरलंगके पौत्रको भेटमें देने के लिए सन् १४१० में समरकन्द में जो पुस्तक लिखी गई थी, वह कारोंके कई उत्तमोत्तम चित्र हैं । प्राचीन चित्रों के ५००० पौण्डमें विकी है। उसमें ईराणके चित्रसंग्रह करने का भी यूरोपके धनियोंको बड़ा मारी शौक । अभी कुछ ही महिने पहले सर चित्र वेस्ट मिनिस्टर के ड्यूकने ५२००० पौण्डमें जोशुआ रेनाल्डका चित्रित किया हुआ एक खरीदा है ! I क्या हमारे समाज के धनी भी अपनी प्राचीनतापूजक प्रकृतिको कभी इस रूप में सार्थक करेंगे ? क्या प्राचीन विद्वानों और आचार्यों के जीर्णशीर्ण ग्रन्थोंको संग्रह करनेकी ओर भी कभी उनका हृदय आकर्षित होगा ? इस समय यदि वे चाहें तो लाख पचास हजार रुपयों में ही हजारों दुर्लभ्य ग्रन्थोंका संग्रह कर सकते हैं और अपने पूर्वजोंकी अगणित कृतियोको सदा के लिए नष्ट होने से बचा सकते हैं ।

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