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अङ्क ५]
सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र ।
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शिक्षाका विस्तार करो यों
रहे न अनपढ़ कोई शेष, सब पढ़ लिखकर चतुर बनें औ' • समझें हित-अनहित सविशेष ॥
लेकर उनसे सबक स्वधनका __ करो देश-उन्नति-हित त्याम, दो प्रोत्साहन उन्हें जिन्हें है
देशोन्नतिसे कुछ अनुराग। शिल्पकला-विज्ञान सीखने
युवकोंको भेजो परदेश, -कला-कारखाने खुलवाकर, .. मेटो सब जनताके क्लेश ॥
करें देश-उत्थान सभी मिल, __फिर स्वराज्य मिलना क्या दूर ? पैदा हों 'युग-वीर' देशमें, ___ तब क्यों रहे दशा दुख पूर ? प्रबल उठे उन्नति-तरंग तब,
देखें सब भारत-उत्कर्ष, धुल जावे सब दोष-कालिमा,
सुखपूर्वक दिन कटें सहर्ष ॥
कार्यकुशल विद्वानोंसे रख
प्रेम, समझ उनका व्यवहार, उनके द्वारा करो देशमें
बहु उपयोगी कार्य-प्रसार । भारत-हित संस्थाएँ खोलो .
ग्राम ग्राममें कर सुविचार, करो सुलभ साधन वे जिनसे उन्नत हो अपना व्यापार ॥
(७) चक्करमें विलासप्रियताके
फँस, मत भूलो अपना देश, प्रचुर विदेशी व्यवहारोंसे
करो न अपना देश विदेश, लोकदिखावेके कामों में होन'
न दो निज शक्ति-विनाश, न्यर्थव्ययोंको छोड़, लगो तुम
भारतका करने सुविकाश ॥ -
(८) वैर विरोध, पक्षपातादिक, .
ईर्षा, घृणा, सकल दुखकार रह न सकें मारतमें ऐसा यत्न
करो तुम बन समुदार ।
सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी
समन्तभद्र। [ लेखक, श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।]
(२) : सिद्धसेन दिवाकरका एक सिद्धांत जैनागमोंके रूढ-अभिप्रायसे बहुत ही मिन्न है और वह जैन-( श्वेताम्बर ) साहित्यमें बहुत प्रसिद्ध और बहु-विवेचित है । यह सिद्धांत केवलज्ञान और केवलदर्शनके स्वरूपसे सम्बन्ध रखता है। इसका पूरा परिचय करानेके लिए यह स्थान उपयुक्त नहीं है, फिर भी हम यहाँ संक्षेपसे सूचनमात्र कर देना चाहते हैं। ... श्वेताम्बर संप्रदायमें जो सिद्धान्त ग्रंथ-सूत्रग्रन्थ विद्यमान हैं उनमें, लिखा है कि केवली (सर्वज्ञ ) को केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों युगपत् अर्थात् एक साथ नहीं होते परंतु क्रमशः–एक बार केवलज्ञान और एक