Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 41
________________ अङ्क ५] जैनधर्म अनीश्वरवादी है। १३५ जैनधर्म अनीश्वरवादी है। हैं कि जैनधर्म नास्तिक नहीं है-वह परम आ स्तिक है। कुछ समय पहले तो इस विषयकी संसारमें सबसे अधिक संख्या ईश्वरवादिः चर्चा और भी जोरों पर थी। परन्तु हमारी योंकी है। वर्तमान दृष्ट संसारके लगभग ढाई समझमें यदि लोग 'नास्तिक' कहनेसे ईश्वरको अरब मनुष्योंमें ऐसे ही लोग अधिक हैं जो इस न माननेवाला ही समझते हैं, अथवा 'नास्तिको सृष्टिका कर्ता हर्ता विधाता एक अदृश्य शक्ति- वेदनिन्दकः ' इस वाक्यके अनुसार वेदाका विशेषको मानते हैं और वही ईश्वर, खुदा, या न माननेवाले ' नास्तिक ' पदवाच्य हैं, तो गाड आदि नामोंसे अभिहित होता है। हिन्दू, नास्तिक' कहनेसे हमें चिढ़नेकी आवश्यकता ईराणी, यहूदी, ईसाई आदि सभी धर्म ईश्वरके नहीं है, वरन् इसे उसी प्रकार अपना गौरव उपासक हैं और इन्हींके अनुयायियोंकी संख्या में बढ़ानेवाला समझना चाहिए जिस तरह हम अपने सबसे अधिक है। जीते-जागते बचे-खुचे धर्मों में नाम अन्य ‘स्याद्वाद' आदि मुख्य सिद्धान्तोंको जैन और बौद्ध ये दो ही धर्म ऐसे हैं जो वास्तव में समझते हैं। अनीश्वरवादी हैं, अर्थात् किसी ईश्वरविशेषके बहुतसे जैनधर्मानुयायियोंको 'नास्तिक' के अस्तित्वको स्वीकार नहीं करते हैं। और इस समान 'अनीश्वरवादी' बनना भी नापसन्द हैं। भारतवर्षमें तो केवल जैनधर्म ही अनीश्वरवादकी वे इस कला (1) के टीकेको भी अपने मस्तकमें थोड़ी बहुत रक्षा कर रहा है। बौद्धधर्म यहाँ नहीं लगाये रखना चाहते । इस टीकेको पोंछ बहुत थोड़ा-नाममात्रको है; जो कुछ है यहाँसे डालनेका-कमसे कम फीका कर डालनेकाबाहर चीन, जापान, श्याम आदि देशमि है। प्रयत्न हम अभी ही नहीं, बहुत समयसे कर रहे जैन और बौद्ध धर्म इस अनीश्वरवादके हैं। इस प्रयत्नमें थोड़ी बहुत सफलता भी हुई कारण 'नास्तिक' भी कहलाते हैं । यद्यपि है। सर्वसाधारण लोग यह समझने लगे हैं कि बहुतसे विद्वानोंके मतसे जो लोग परलोकको जैनी भी ईश्वरको मानते हैं और अपने मन्दिरोंमें नहीं मानते हैं, या आत्माके अस्तित्वको नहीं हमारे ही समान उसकी मूर्तियाँ भी स्थापित करमानते हैं, वे ही 'नास्तिक' कहे जाने चाहिएँ के पूजते हैं, सिर्फ इतना अन्तर है कि वे अपने और इस दृष्टिसे जैनधर्म इस नास्तिकतासे मुक्त ईश्वरको महावीर, पार्श्वनाथ, नमिनाथ जिनदेव हो जाता है, परन्तु नास्तिकताका प्रचलित आदि नामोंसे पुकारते हैं। परन्तु वास्तवमें जैनधर्म अर्थ ईश्वरका न मानना ही है । सर्वसाधारण अनीश्वरवादी है और यह उसकी अस्थिमज्जागत लोग इस शब्दको इसी अर्थमें व्यवहृत करते हैं, प्रकृति है । वह न छुपायेसे छुप सकती है और इस कारण यह कहना असंगत नहीं कि जैनधर्म न बदलनेसे बदली जा सकती है। जब तक अनीश्वरवादी भी है और नास्तिक भी है। जैनधर्म और जैनविज्ञानका आमूल परिवर्तन .. परन्तु आजकलके जैनधर्मानुयायी अपनेको न कर दिया जाय, तब तक उसमेंसे अनीश्वरवाद 'नास्तिक ' नहीं कहलाना चाहते। इसे वे पृथक् नहीं किया जा सकता। एक अपमानजनक शब्द समझते हैं और जिन्होंने संसारके विविध धर्मोंके इतिहासका इस कारण उनके व्याख्यानों और लेखोंमें इस अध्ययन किया है वे जानते हैं कि प्रत्येक धर्म विषयका अकसर प्रतिवाद देखा जाता है। वे पर उसके पड़ौसी धर्मोका, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बड़ी बड़ी युक्तियाँ देकर सिद्ध किया करते किसी न किसी रूपमें, कुछ न कुछ प्रभाव

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