Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 39
________________ अङ्क ५] सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र । कि दिगम्बराचार्योंको दिवाकरजीहीका मत मान्य समझकर, उनका अवलोकन नहीं करते-इस है । दिगम्बर ग्रन्थोंमें सर्वत्र ही केवलज्ञानीको लिये यदि श्रमणगण अनुमति दें तो मैं उन्हें ज्ञान और दर्शन दोनों युगपत् लिखे हुए हैं। संस्कृत भाषामें परिवर्तित कर देना चाहता उनमें श्वेताम्बर आगमोंके अनुसार जुगवं दो हूँ।" यह सुनते ही श्रमण-संघ एकदम चौंक णत्थि उवओगा' अर्थात् एक साथ दो उपयोग उठा और 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण नहीं होते-यह विचार कहीं देखनेमें नहीं करता हुआ, इनसे कहने लगा कि, “ महाराज ! आता। इतना ही नहीं, बल्कि तत्त्वार्थराज- इस अकर्तव्य विचारको अपने हृदयमें स्थान वार्तिकमें भट्ट अकलंकदवने 'केवलिश्रुतसङ्घ- देकर आपने तीर्थकर, गणधर और जिन-प्रवचधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।' ६-१३ । इस नकी महती 'आशातना' ( अवज्ञा ) की सूत्रकी व्याख्यामें है । ऐसा कलुषित विचार करनेके और श्रमण 'पिण्डाभ्यवहारजीविनः, केवलदशानिर्हरणाः, अला संघके सामने ऐसे उद्गार निकालनेके कारण, अपात्रपरिग्रहाः, कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः, केवलिन जैनशास्त्रानुसार आप 'संघबाह्य ' के भूर्दण्डकी इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः।' शिक्षा पानेके अधिकारी हुए हैं।" दिवाकरजी ऐसा लिख कर केवलीको कवलाहार माननेके संघके इस कथनको सुनकर चकित हो गये; और मेरे एक सरल विचारसे भी संघको इतनी समान इस ‘क्रमोपयोगवाद' को भी, केवलज्ञानीके अवर्णवाद-स्वरूप बतलाकर दर्शनमोह अप्रीति हुई, इस लिये बहुत ही दुखी हुए। कर्मके बन्धका कारण बतलाया है ! अकलंक संघसे तुरन्त उन्होंने क्षमा-प्रार्थना की और देवके इस कथनके विरुद्ध श्वेताम्बर विदान जो कुछ प्रायश्चित्त दिया जाने योग्य हो उसे सिद्धसेन गणिने भी इसी सूत्रकी व्याख्यामें- देनेकी विज्ञप्ति की। कहा जाता है कि संघने उन्हें शास्त्रानुसार बारह वर्षतक ' बहिष्कृत ' दिगम्बरवाद्विगतत्रपाः, क्रमोपयोगभाजः, रूपमें रहनेका पाराश्चित' नामक प्रायश्चित्त ससबसरणभूमावप्कायभूम्यारम्भानुमोदिनः सर्वोपायनिपुणा अप्यतिदुष्करतुरपचरमार्गोपदेशिनः; इत्याद्य दिया, जिसे दिवाकरजीने सादर स्वीकार कर बर्णोद्भासनम्।' संघाज्ञाका पालन किया । प्रायश्चित्तकी मर्यादा ... पूर्ण हो जाने पर संघने उनको फिर अपनेमें इस प्रकार लिख कर केवलज्ञानीको क्रमशः शामिल कर लिया । इस किम्बदन्तीमें ज्ञान दर्शन होनेवाले मत (विचार ) में युक्ति- , रहितता मानने या प्रतिपादन करनेवालोंके हमारी समझमें कुछ न कुछ ऐतिहासिक सत्य अवश्य है । ऊपर जो हमने थोड़ासा इनके विचारको दर्शन मोहकर्मके बन्धका कारण बम बस- विचार-स्वातंत्र्य और स्पष्ट-भाषित्वका परि-. लाया है। ----- चय दिया है, उससे यह जाना जा सकता है सिद्धसेनसूरिके विषयमें एक यह भी किम्व- कि, यदि जैनागमोंके सम्बन्धमें इन्होंने ऐसी दन्ती प्रचलित है कि, इन्होंने एक बार श्रमण- कोई बात श्रमण-संघके सामने प्रदर्शित की संघके सामने यह विचार प्रदर्शित किया था कि, हो, अथवा कृतिरूपसे उपस्थित कर दी हो कि " जैनागम प्राकृत भाषामें है, इस लिये जिससे पुराणप्रिय और आगमप्रवण श्रमणविद्वानोंका उनके प्रति विशेष आदर नहीं वर्गको असंतोष हुआ हो, तो, कोई आश्चर्यकी होबा-विदग्धगण उन्हें ग्रामीण भाषाके ग्रन्थ बात नहीं है ।

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