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अङ्क ५]
दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रंथ।
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जो कनड़ी आदि लिपियों परसे देवनागरी यदि कोई महाशय इस पर पारितोषिक निकालें अक्षरोंमें ग्रंथोंकी कापियाँ किया करें और तो और भी अच्छा है । विद्यानंद स्वामीके जिनके द्वारा बाहरसे आई हुई ग्रंथोंकी माँगको द्वारा उपर्युक्त उल्लेखके होनेसे यह ग्रंथ विक्रबराबर पूरा किया जाय । ऐसा करने पर ही भवन मकी ९ वीं शताब्दीसे पहलेका बना हुआ है,इसके समाजके लिये कुछ विशेष उपयोगी हो सकेगा और कहनेमें हमें कोई संकोच नहीं होता । परंतु कितने
की अपनी ओर पहलेका बना हुआ है, यह बात अभी विचाराआकर्षित कर सकेगा। अन्यथा, वह भी समा- धान ह । श्लोकवार्तिकसे पहले बने हुए किसी
ग्रंथमें यदि हमारे किसी विद्वान् महाशयको इस जके दूसरे अनेक अंधकाराच्छन्न भंड
ग्रंथका नामोल्लेख देखनेमें आया हो तो वे कृपा होगा और उनसे अधिक उसे कोई महत्त्व नहीं दिया जाय । आशा है, भवनके मंत्रीसाहब कर हमें उससे सूचित कर अनुगृहीत करें। हमारी इस समयोचित सूचना पर अवश्य ध्यान
१४ वादन्याय । देनेकी कृपा करेंगे।
श्रीविद्यानंदस्वामीके 'पत्रपरीक्षा ' नामक १३ जल्पनिर्णय । ग्रंथसे मालूम होता है कि 'वांदन्याय ' नामका
भी कोई जैन ग्रंथ है और वह श्रीकुमारनन्दि श्लोकवार्तिकमें विद्यानंद स्वामीके एक
, आचार्यका बनाया हुआ है। पत्रपरीक्षामें इस उल्लेखसे पाया जाता है कि 'जल्पनिर्णय' . नामका भी कोई जैनग्रंथ है, जिसे 'श्रीदत्त' .
, ग्रंथके तीन पद्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किये
गये हैं:- “तथैव हि कुमारनंदिभट्टारकै. नामके एक महान विद्वानाचार्यने बनाया था।
रपि स्व-वादन्याये निगदितत्वात्तदाहवह उल्लेख इस प्रकार है:
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । " पूर्वाचार्योऽपि भगवानमुमेव द्विविधं जल्पमावेदित
प्रतिक्षा प्रोच्यते तज्झैस्तथोदाहरणादिकम् ॥ १॥ वानित्याह
. न चैवं साधनस्यैकलक्षणत्वं विरुध्यते। द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् ।।
हेतुलक्षणतापायादन्यांशस्य तथोदितं ॥२॥ त्रिषष्ठेर्वा दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥" ..
अन्यथानुपपत्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । यह ग्रंथ बिलकुल अश्रुतपूर्व जान पड़ता है- प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः॥"३H. किसी भी प्रसिद्ध भंडारकी सूची में हमारे देखने इन पद्योंसे पाया जाता है कि 'वादन्याय' अथवा सुनने में नहीं आया । विद्यानंद जैसे नामका ग्रंथ एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रतिभाशाली विद्वान इस ग्रंथके कर्ताको ‘पूर्वा- यह ग्रंथ भी नवीं शताब्दीसे पहलेका बनाहआ चार्य' और 'भगवान् ' शब्दोंके साथ स्मरण है। परंतु कितने पहलेका, यह, अभी निश्चित करते हैं और साथ ही उन्हें ६३ वादियोंको नहीं हुआ और न यही मालुम हो सका है कि जीतनेवाला प्रकट करते हैं, इससे प्रकृत ग्रंथ ग्रंथ किस जगहके भंडारमें मौजूद है। अभी कितना प्रभावशाली और महत्त्वको लिये हुए तक किसी भी भंडारकी सूचीमें हमें इस ग्रंथका होगा, इसका सहज ही अनुमान हो सकता नाम नहीं मिला। अफसोस ! हम जैनियों के है । नहीं मालूम यह न्यायविषयक ग्रंथ कबका प्रमादसे कैसे कैसे ग्रंथरत्न लुप्तप्राय हो रहे हैं, बना हुआ है और इस वक्त कहाँके भंडारमें जिनके अन्वेषणका समाजकी, ओरसे कुछ भी आसन जमाये हुए है । हमारे भाईयोंको अपने प्रयत्न जारी नहीं है, फिर भी हम लोग, अपने भंडारोंमें इसकी तलाश करनी चाहिये। अपनेको जिनवाणी-भक्त . समझते हैं, यह