Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 32
________________ D 0299060000000000260000000seccédecade0e0ec00c020 १२६ जैनहितैषी [भाग १४ @eeeeeeeeeeeeeeeeeeeee009909000 मेरा क्या संयोग हुआ, मुझे भयंकर रोग हुआ । हा ! बे-ब्याही सुता रही, जी सकता हूँ हाय नहीं ॥ १६ ॥ व्याह-कर्मको उठा धरो, मेरे अन्तिम कर्म करो। कर पर जमता नहीं दही, जी सकता हूँ हाय नहीं ॥ १७ ॥ क्या सबसे बतलाऊँगा, कैसे मुख दिखलाऊँगा । क्यों कट जाती नहीं मही, जी सकता हूँ हाय नहीं ॥ १८ ॥ वर मन ही मन दंग हुआ, ब्याह-मनोरथ भंग हुआ। रूपचन्दकी देख दशा, हेतु समझ, वह खूब हँसा ॥ १९ ॥ जब कारणका बोध हुआ, सबके मनमें क्रोध हुआ। सबके आसन डोल उठे, सभी वेगसे बोल उठे ॥ २० ॥ रूपचन्द ! नखरे छोड़ो, नहीं धर्मसे मुख मोड़ो। उठो, सुताका करो विवाह, निन्दित है अधर्मकी चाह ॥ २१ ॥ जाति-च्युत हो जाओगे, जी कर मृतक कहाओगे । कभी पाप क्या फला कहीं ? कर्म-भोग क्या टला कहीं ? ।। २२ ॥ पाँचों सौ रुपये लाओ, धर्म-दण्डसे बच जाओ। हरिसेवकको देवो फेर, रूपचन्द ! अब करो न देर ॥ २३ ॥ चाहे जातिच्युत करिए, चाहे मम सरवस हरिए । कैसे रुपये, कैसा ब्याह, आह आह मरता हूँ आह ॥ २४ ॥ उसकी स्त्रीने रुपये सब, फेंक दिये आँगनमें तब । रूपचन्द लख उठ बैठा, बहुत मनी मनमें ऐंठा ॥ २५ ॥ रुपया सबकी सम्मतिसे, और न्यायकी सम्मतिसे ।, हरिसेवकको दिया गया, कर्म-धर्मका किया गया ॥ २६ ॥ रूपचन्द तब त्रस्त हुआ, कुछ कुछ धर्म-ग्रस्त हुआ । धीरे बोला, बोलो मंत्र, कन्या + निपटे षड्यंत्र ॥ २७ ॥ राम राम कह काम हुआ, रूपचन्द बदनाम हुआ। हरिसेवकका व्याह हुआ, सबमें शुभ उत्साह हुआ ॥ २८ ॥ वर जोड़ी कन्या वरकी, सुखद रहे अपने घरकी। सबने यह आशीस दिया, जनवासे प्रस्थान किया ॥ २९ ॥ मिट नहीं सकता विधिका लिखा, पर इसे सुनता जन कौन है ? । श्रवण-हीन मनो जग होगया, थकित हो अथवा वह मौन है ॥ ३० ॥ समाप्त। geeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee OODOOOOO ग HODead

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