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अङ्क ४] विचित्र व्याह।
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नवाँ सर्ग । रूपचन्द है मग्न बड़ा, सुता-ब्याहमें लग्न बड़ा। कब आवेगी घर बारात, उसके मुँहमें थी यह बात ॥१॥ दोसौ अब मिल जावेंगे, व्योम-कमल खिल जावेंगे । इसी ध्यानमें व्यस्त रहा, नहीं पापसे त्रस्त रहा ॥ २॥ लक्ष्मीकी मा रोती थी, दृग-जलसे तन धोती थी। उसे चैनका नाम नहीं, तनिक कहीं विश्राम नहीं ॥ ३ ॥ कन्या बिकती है मेरी, क्या है दुर्मतिने घेरी। सोच रही थी पड़ी पड़ी, चिन्ता उरमें रही बड़ी ॥ ४ ॥ लक्ष्मीको तो ज्ञान न था, क्या होता है ध्यान न था। रहती थी सखियोंके संग, गान वाद्य सुन भरी उमंग ॥ ५ ॥ इसी बीचमें फैली बात, देखो वह आई बारात । हाथी घोड़े हैं जैसे, कभी न देखे थे वैसे ॥६॥ घरवालांकी अगवानी, वरवालाने भी मानी । तुरत सभी शुभ समय विचार, रूपचन्दके पहुँचे द्वार ॥ ७ ॥ हुई द्वार-पूजा सानन्द, किये गये सब बाजे बन्द । जनवासे बैठी बारात, दिन डूबा, हो आई रात ८॥ रूपचन्द भी गया वहीं, हरिसेवकसे बात कही। दो सो लौकर तुरत भगा, पूरा उसका भाग्य जगा ॥ ९ ॥ स्त्रीको रूपये देता था, मनो पाप-फल लेता था। पर लोलुप वह हुई नहीं, जाकर बैठी अलम कहीं ॥ १०॥ मण्डपमें अब वर आया, वधुओंने मंगल गाया । सबमें छाया नव उत्साह, क्रमसे होने लगा विवाह ॥ ११॥ रूपचन्दको व्यापा पाप, चढ़ बैठा तृष्णाका ताप । कैसे रुपये और मिलें, सिकता-थलमें कमल खिलें ॥ १२ ॥ शुरू हुई ज्यों सप्तपदी, रूपचन्दसे हुई बदी । पेट पकड़ वह गिरा कराह, भरने लगा आह पर आह ॥१३॥ मेरे उरमें पीड़ा है, पर न किसीको व्रीडा है, कर दो मुझको अलग कहीं, जी सकता हूँ हाय नहीं ॥ १४ ॥ मेरे दुखको शीघ्र हरो, दवा-दानकी युक्ति करो। समयोचित है काम यही, जी सकता हूँ हाय नहीं ॥ १५॥
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