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जैनहितैषी
[ भाग १४ tee9ee9e9e9e6ee99E 9999 666
जो सुपात्रको अर्पण होवे कहलाता है दान वही, ___करता है जो काम समझकर, पाता है सम्मान वही ॥१५॥ कहा सुशीलाने वैसा ही होगा, कहते हो जैसा, ___ अच्छे मन्त्र ग्रहण करनेमें, बेटा ! मीन मेष कैसा ? मुनि-पद्धतिसे ब्याह तुम्हारा-होगा, होगा नाँच नहीं,
चाहे स्तुति हो, या निन्दा हो, किन्तु साँचको आँच नहीं ॥ १६ ॥ सुन माताके वचन मनोहर हरिसेवक अति मग्न हुआ,
उसके आज्ञापालनमें वह, तन, मनसे संलग्न हुआ। इसी बीचमें रूपचन्द फिर. आकर बोला बडे सप्रेम. __ कहिए बाबू हरिसेवकजी, है तो सब कुछ कुशल क्षेम ? ॥ १७॥ . कुशल प्रश्न के बाद तुरत ही उसने कहा लाजको छोड़, __दौड़ा मैं आता हूँ भैया, अपने सभी काजको छोड़। सौरुपये फिर मुझे दीजिए अब चलता है काम नहीं, ___धिग जीवन है उस मानवका, जिसके पल्ले दाम नहीं ॥१८॥ तुरत सुशीलाने लाकरके रुपयोंको दे दिया उसे । ___राम राम कह किसी व्योंतसे, विदा वहाँसे किया उसे, फूले अंग न समाया वह भी, रुपयोंको पाकरके मूढ़,
उसमें ज्ञान रहे फिर कैसे, जिस पर हुआ लोभ आरूढ़॥ १९॥ रूपचन्दके हट जाने पर भाईबन्द लगे आने,
प्रेम-युक्तिसे सब बरातको लगे मनोहर सजवाने। बाजे बजने लगे मोदप्रद सुन्दरियोंने गान किया, __ चहल पहल मच गई द्वारपर, सबने सबका मान किया ॥२०॥ हरिसेवकके विशद शीश पर, मौर बड़ी छवि देता था, __मनो चन्द्रमा मुकुट दिये है, सबके मन हर लेता था। कहीं सुशीलाके पग भू पर, उछल उछल कर पड़ते थे
वन्दीजन मङ्गल-पद्योंको, कहीं उच्चस्वर पढ़ते थे ॥ २१ ॥ हुआ शुभाचार समाप्त रीतिसे,
बड़े समुत्साह .सुनीति प्रीतिसे । समा वहाँका स्थिर हो सका नहीं,
सहर्ष बारात चली तुरन्त ही ।। २२॥
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