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१२२ जैनहितैषी
[भाग १४ ®DOGeeeeeeeeeeeeeeeeDEODODDED
विचित्र ब्याह । - [भाग १३ अंक १२ से आगे।] (ले०, पं. रामचरित उपाध्याय ।)
अष्टम सर्ग। सौ रुपये फिर रूपचन्दने लिये सुशीलासे आके, ___ वह भी लगा तयारी करने सुता-ब्याहकी घर जाके । वहाँ सुशीलाने भी सुतके सुखद ब्याहको ठान दिया, ___ अपने सम्बन्धी स्वजनोंको पत्र भेज आह्वान किया ॥ १ ॥ विविध भाँतिकी देख तयारी, हरिसेवक क्यों चुप रहता!
क्यों न हनिकारक कामोंको तज देनेको वह कहता । बोला मासे ब्याह करो मा, मेरा हर्षसमेत सही,
किन्तु नाँच या आतशवाजीका है कुछ भी काम नहीं ॥ २ ॥ आतशवानी छोड़ द्रव्यमें सचमुच भाग लगाना है ।
माता ! बुधसमाजके आगे बुद्धि-हीन कहलाना है। इसी लिए आतशवाजीका लेना नहीं कभी तम नाम,
यदि रुपये हों तो फिर उनसे करना जगउपकारक काम ॥३॥ इसी प्रकार नाँचका भी तुम, नाम न लेना भूल कभी, ___ जान बूझ कर जननि ! धर्म पर, नहीं डालना धूल कभी। वेश्याओंको धन देनेसे हो जाता है बड़ा अनर्थ,
सोच समझ कर करो ब्याहको, तुम रुपये फेंको मत व्यर्थ ॥ ४ ॥ दुराचारियोंको यदि धन दे, दुराचार तो बढ़ता है,
खलके साथीके सिर पर भी पाप दौड़कर चढ़ता है । पापी धन पा क्योंकि और भी घोर पापको करता है,
वह जगके अपवादोंसे फिर मनमें तनिक न डरता है ॥ ५ ॥ पापीके सुख देख दुखी जन पाप सीखने लगते हैं,
प्रथम पनप कर यदपि अन्तमें, स्वयं झीखने लगते हैं । क्योंकि एककी देखादेखी दूजा भी करता है काम ___ इसी लिए ही बुरे कर्मके सज्जन कभी न लेते नाम ॥ ६ ॥ प्रायः वेश्यायें करती हैं मद्य मांसका सेवन भी,
और दुराचारी होते हैं प्रायः उनके परिजन भी ।
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