Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ ११४ | भाग १४ ऐसी हालत में 'देवागम' को भी युक्त्यनुशासन के सदृश गंधहस्तिमहाभाष्यका कोई अंग न मान कर एक स्वतंत्र ग्रंथ कहना चाहिये । १४ - श्रीधर्म भूषणयतिविरचित ८ न्यायदीपिका' में, सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए, आप्तमीमांसाका एक पद्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया हुआ मिलता है: निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे - सूक्ष्मान्तरितदूरार्था.... ........ | " विशीर्णदोषाशय पाशबन्धं ॥ १ ॥ अद्यास्मिन् काले परीक्षावसानसमये । " विद्यानंदाचार्य के इस संपूर्ण कथन से मालूम होता है कि स्वामि समन्तभद्रने आप्तमीमांसा ( देवागम ) के अनन्तर ही उक्त ग्रंथद्वारा अर्हन्तदेवकी परीक्षा के बाद ही - 'युक्त्यनुशासन ' ग्रंथ की रचना की है । यदि ' देवागम' को गंधहस्तिमहाभाष्यका एक अंग और उसका आदिम भाग माना जाय तो युक्त्यनुशासनको भी उक्त महाभाष्यका तदनन्तर अंग कहना होगा। परंतु ऐसा नहीं कहा जाता । युक्त्यनुशासन समन्तभद्रका, महावीर भगवानकी स्तुतिको लिये -हुए हितान्वेषणका उपाय प्रतिपादक एक स्वतंत्र ग्रंथ माना जाता है । नीचेके कुछ पयों और उनकी कथनशैली से भी प्रायः ऐसा ही आशय ध्वनित होता है:-- इससे मालूम होता है कि स्वामी समन्तभद्रप्रणीत ' महाभाष्य ' की आदिमें आप्तमीमांसा नामका एक प्रस्ताव है । और सिर्फ यही एक उल्लेख है जो अभी तक हमें इस विषय में प्राप्त हो सका है और जिससे प्रचलित प्रवादको कुछ आश्वासन मिलता है । यद्यपि इस उल्लेखमें ' गंधहस्ति महाभाष्य ' ऐसा स्पष्ट नाम नहीं है, न इस ' महाभाष्य ' को उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य प्रकट किया है, न यह ही सूचित किया है कि उसकी ग्रंथसंख्या ८४ हजार श्लोक परिमाण है, और इसलिये संभव है कि यह महाभाष्य समन्तभद्रका उपर्युल्लिखित, ४८ हजार श्लोक संख्याको लिये हुए, 'कर्मप्राभृत' सिद्धान्तवाला भाष्य हो अथवा कोई । "नरागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदिमुनौ, न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमुन्यायान्यायप्रकृतगुणदोषज्ञमनसां हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः " ॥ ६४ ॥ दूसरा ही भाष्य हो । और उसमें आचार्य महो - युक्त्यनुशासन । " श्रीमद्वीर जिनेश्वराम लगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमंतभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्याखिलं । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगैविद्यानंदबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः ॥” दयने आवश्यकतानुसार, अपने आप्तमीमांसा ग्रंथको भी बतौर एक प्रस्तावके शामिल कर दिया हो, तो भी धर्मभूषण के इस उल्लेखसे प्रकृत गंधहस्ति महाभाष्यका आशय जरूर निकाला जा सकता है। परंतु जब हम इस उल्लेखको ऊपर दिये हुए संपूर्ण अनुसंधानोंकी रोशनी में पढ़ते हैं और साथ ही, इस बातको ध्यान में रखते हैं कि धर्मभूषणजी विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के विद्वान हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि यह उल्लेख उस वक्तके प्रचलित प्रवाद, टी. विद्यानन्दस्वामी । इसके बाद मूल ग्रंथका प्रथम पद्य उद्धृत किया है जो इस प्रकार है: ८ जैनहितैषी - की महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वं " 'जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनं । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृंभते ॥ " हरिवंशे जिनसेनः । 66

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