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जैनहितैषी
[ भाग १४
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म्बरजैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रंथ ' नामक
सूचीमें ' श्रीचंद्र'के नामके साथ १ श्रावकाचारअर्थात्-- जैनाचार्य, दूसरे जैन विद्वान्, उनके
रत्नकरंड ( प्राकृत श्लोक ४४००), २ सम्यक्त्व
रत्नकरंड ( प्राकृत ), ३ पद्मपुराणकी पंजिकापोषक, प्रधान श्रावक और
टीका,४ श्रावकाचार ( सप्तव्यसननिरोधात्मक) जैन राजादिक।
और ५ पंचकल्याणकपूजा, ये ग्रंथ और दिये
हैं। हम नहीं कह सकते कि ये सब ग्रंथ उक्त ७ श्रीचन्द्र, श्रीनन्दी और सागरसेन। श्रीचंद्रमनिके बनाये हुए हैं अथवा किसी दूसरे
‘श्रीचंद' नामके मुनिने धाराधीश महा- श्रीचंद्रके । ग्रंथोंके देखने पर इस बातका निश्चय राजा भोजके समय में “पुराणसार' नामका एक हो सकता है । जिन विद्वानोंको उक्त पांचों ग्रंथामसे संस्कृत ग्रंथ बनाया है, जिसकी श्लोकसंख्या किसी ग्रंथके देखने का अवसर मिला हो उन्हें 'दिगम्बर जैनग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ' नामक यथार्थ बातसे सचित करना चाहिये । उक्त सूचीके अनुसार २१०० है । इस ग्रंथकी प्रशस्ति सूची में एक स्थानपर फुटनोटद्वारा, यह भी और रचना संवत् इस प्रकार है:-
सूचित किया गया है कि 'एक श्रीचंद्राचार्य "धारायां पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युच्चकैः वि. स. १२४१ में हुए हैं। मालूम नहीं वे श्रीमत्सागरसेनतो यतिपतेज्ञात्वा पुराणं महत् । श्रीचंद्र कौनसे आचार्यके शिष्य थे और उनके मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगतां श्रीनन्दिशिष्यो बुधो
इस नाम तथा समयकी उपलब्धि कहाँसे कुर्वे चारुपुराणसारममलं श्रीचन्द्रनामा मुनिः ॥१॥
हुई है । आशा है, सूचीके लेखक महाशय श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे यज्ञशन्य ( सप्तत्य ? ) धिकव- इसका स्पष्टीकरण करनेकी कृपा करंग ! र्षसहस्र पुराणसाराभिधानः समाप्तः।"
इससे मालम होता है कि श्रीचंद्रमनि 'श्री- सागरसेन मुनिके विषयमें अभी तक हमें कोई नन्दी के शिष्य थे और उन्होंने मागसेन, विशेष हाल मालूम नहीं हुआ । सिर्फ उक्त नामके यतिपतिसे महापुराणको पढ़कर अथवा .
___ सूचीमें उन्हें । सैद्धान्तिक ' लिखा है और समझकर अपना यह ग्रंथ, उसके संक्षेपरूपमें उनके बनाये हुए ग्रन्थोंमें 'लघु त्रिलोकसार' लिखा है और संभवतः इसे धारानगरी में ही बना- नामके एक प्राकृत ग्रंथका उल्लेख किया कर समाप्त किया है। समाप्तिका संवत् जो ऊपर है
है । वे किनके शिष्य थे, किनके गुरु थे दिया है वह लेखकाशुद्धिके कारण कुछ अस्पष्ट और उन्होंने क्या क्या कार्य किये हैं, उनका यह मालूम होता है। संभव है कि यह 'सप्तत्यधिक- सब इतिहास अभी अंधेरेमें है, जिसकी वर्षसहस्रे' ऐसा पाठ हो जिसका अर्थ १०७० विद्वानोंको खोज लगानी चाहिये । श्रीचंद्रक संवत् होता है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि गुरु श्रीनन्दीके विषयमें भी अभीतक हमें यह ग्रंथ विक्रमकी ११ वीं शताब्दीका बना कुछ विशेष हाल मालूम नहीं हो सका। इनका हुआ है और इस लिये उक्त तीनों विद्वानोंका इतिहास भी अंधकाराछन्न है। हाँ, वसुनन्दी अस्तित्वसमय भी विक्रमकी ११ वीं शताब्दी 'श्रावकाचारके देखनेसे इतना जरूर मालूम होता समझना चाहिये। श्रीचंद्राचार्यने और कौन है कि वसुनन्दीकी गुरुपरम्परामें एक 'श्रीनन्दी' कौनसे ग्रंथोंकी रचना की है, इसका अभी तक नामके आचार्य भी हो गये हैं, जिनके शिष्य हमें कोई ठीक निश्चय नहीं हुआ। हाँ, 'दिग- ‘नयनन्दी' और प्रशिष्य नेमिचंद्र' थे। इन
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