Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 22
________________ जैनहितैषी [भाग १४ 'गंधहस्ति महाभाष्य ' ऐसा कोई नाम नहीं था भट्टाकलंकदेवने, अपने कर्णाटक शब्दानुशासन और यह हम बखूबी जानते हैं कि उन्होंने गंध- में, इस चूडामणिटीकाको 'तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी हस्ति महाभाध्यका कभी दर्शन तक नहीं किया, व्याख्या' ('तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य' जो उस परसे जाँच करके ही ऐसे अर्थका किया चुडामण्यभिधानस्य महाशास्त्रस्य...उपलभ्यमाजाना किसी प्रकारसे संभव समझ लिया जाता, नत्वात्।) लिखा है, जिसका आशय यह होता तो भी उन्होंने 'भाष्य ' का अर्थ 'गंधहस्ति- है कि कर्मप्राभृतादि ग्रंथ भी तत्त्वार्थशास्त्र कहमहाभाष्य' करके एक विद्वानके वाक्यको दूसरे लाते हैं और इसलिये कर्मप्राभूत पर लिखी हुई विद्वानका बतला दिया। यह प्रचलित प्रवादकी समंतभद्रकी उक्त टीका भी तत्त्वार्थमहाशास्त्रकी धुन नहीं तो और क्या है ? इसी तरह एक टीका कहलाती होगी । चूँकि उमास्वातिका दूसरी जगह भी ' तद्भाष्यं ' पदका अर्थ- तत्त्वार्थसूत्र भी तत्त्वार्थशास्त्र' अथवा 'तत्त्वार्थ" ऐसा ही गंधहस्ति महाभाष्यमें भी कहा है-” महाशास्त्र' कहलाता है, इसलिये संभव है कि इस नामसाम्यकी वजहसे 'कर्मप्राभत' के किया गया है । इस उदाहरणसे पाठक स्वयं , टीकाकार श्रीसमंतभद्रस्वामी किसी समय समझ सकते हैं कि प्रचलित प्रवादकी धुनमें उमास्वातिके तत्त्वार्थसत्रके टीकाकार समझ कितना अर्थका अनर्थ हा जाया करता है आर लिये गये हों और इसी गलतीके कारण पीछेसे उसके द्वारा उत्तरोत्तर संसारमें कितना भ्रम तथा .. अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ उत्पन्न हो कर उनका भाव फैल जाना संभव है। शास्त्रोंमें प्रच- वर्तमानरूप बन गया हो । यह भी संभव है, लित प्रवादोंसे अभिभूत ऐसे ही कुछ महाश• कि प्रबल और प्रखर तार्किक विद्वान् होनेके योंकी कपासे अथवा अनेक दन्तकथाओंके किसी कारण ' गंधहस्ति' यह समंतभद्रका उपनाम न किसी रूपमें लिपिबद्ध हो जानेके कारण अथवा विरुद रहा हो और उसके कारण ही ही बहुतसे ऐतिहासिक तत्त्व आजकल चक्करमें उनकी उक्त सिद्धांतटीकाका नाम गंधहस्तिमहापड़े हुए हैं । और इस लिये प्रायः उन सबकी भाष्य प्रसिद्ध हो गया हो अथवा उनके शिष्य जाँच अनेक मार्गों और अनेक पहलुओंसे होनी शिवकोटिने जो तत्त्वार्थसूत्रकी टीका लिखी है चाहिये । हरएक बातकी असलियतको खोज- उसी परसे इस विषयमें उनके नामकी प्रसिद्धि निकालनेके लिये गहरे अनुसंधानकी जरूरत है। हो गई हो । कुछ भी हो, यथार्थ वस्तुस्थितिको खोज निकालनेकी बहुत बड़ी जरूरत है, जिसके तभी कुछ यथार्थ निर्णय हो सकता है। लिये विद्वानोंको प्रयत्न करना चाहिये । अस्तु । १५-ऊपर श्रुतावतारके आधार पर यह गंधहस्तिमहामाण्य और आप्तमीमांसाके सम्ब धमें हम अपने इन अनुसंधानों और विचाप्रकट किया गया है कि समंतभद्रने ‘कर्मप्राभूत' रोंको विद्वानोंके सामने रखते हुए उनसे अत्यंत सिद्धान्त पर ४८ हजार श्लोक परिमाण एक नम्रताके साथ निवेदन करते हैं कि वे इन पर सन्दर संस्कृतटीका लिखी थी । यह टीका " बडी शांतिके साथ गहरा विचार करनेकी कृपा चडामणि' नामकी एक कनडी टीकाके बाद, प्रायः उसे देखकर, लिखी गई है। चूडामणिकी * यहाँ ग्रंथका परिमाण ९६ हजार श्लोक दिया है जिसकी बाबत राइस साहबने, अपनी 'इंस्क्रिपशंसश्लोकसंख्याका परिमाण ८४ हजार दिया है एट श्रवणबेलगोल' नामक पुस्तकमें, लिखा है कि. और वह उस कर्मप्राभृत तथा साथ ही, कषाय- इसमें १२ हजार श्लोक ग्रंथके संक्षिप्तसार अथवा प्राभृत नामके दोनों सिद्धान्तों पर लिखी गई थी। सूचीके शामिल हैं।

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