Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 21
________________ अङ्क ४] गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज। लोकोक्ति अथवा दंतकथाओंके आधर पर ही दकी धुनमें अर्थका अनर्थ भी हो जाता है, किया गया है । वास्तविक तथ्यसे इसका प्रायः जिसका एक उदाहरण हम अपने पाठकों के कोई सम्बंध नहीं। और न यह मानने अथवा सामने नीचे रखते हैंकहनेका कोई कारण है कि धर्मभूषणजीने उक्त न्यायदीपिकामें एक स्थानपर ये वाक्य गंधहस्तिमहाभाष्यको स्वयं देखकर ही ऐसा दिये हैं:उल्लेख किया है। यदि ऐसा होता तो खास तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः । यद्राजवार्तिकम् लेख " अनेकार्थानिश्चिता पर्युदासात्मकः संशयः, तद्विपरीराजवार्तिकादि ग्रंथोंके स्थानों में अथवा उनके तोऽवग्रहः " इति । भाष्यं च " संशयो हिं निर्णय. विरोधी नत्ववग्रहः" इति । साथ जरूर पाया जाता। परंतु ऐसा नहीं है, पं. खूबचंदजीने, न्यायदीपिकापर लिखी न्यायदीपिकामें दूसरी जगह भी आप्तमीमांसा हुई अपनी भाषाटीकामें, इन वाक्योंका अनुवाद का ही उल्लेख किया गया है। वहाँ ऊपरके सदृश महाभाष्यादि शब्दोंका प्रयोग भी नहीं है, देते हुर, 'भाष्य' शब्दसे 'गंधहस्तिमहा भाष्य' का अर्थ सूचित किया है- अर्थात्, बलिक बहुत सीधे सादे शब्दोंमें 'तदुक्तमाप्तमी सर्वसाधारण पर यह प्रकट किया है कि 'संशयो हि मांसायां स्वामिसमंतभद्राचार्यः ' ऐसा कहा निर्णयविरोधी नत्वग्रहः' यह वाक्य गंधहस्तिगया है। धर्मभूषणजीके समयसे अबतक ऐसा महाभाष्यका एक वाक्य है । टीकाके संशोधनकोई महान विप्लव भी उपस्थित नहीं हुआ कि कर्ता पं० वंशीधरजी शास्त्रीने भी उनकी जिससे गंधहस्ति महाभाष्य जैसे ग्रंथका एकदम इस बातको पास कर दिया है-अर्थात्, लोप होना मान लिया जाय । और यदि ऐसा पुस्तकपर अपने द्वारा संशोधन किये जानेकी मान भी लिया जाय तो उनसे पहले प्राचीन मुहर लगाकर इस बातकी रजिस्टरी कर दी है साहित्यमें उसके उल्लेख न होनेका कारण क्या कि उक्त वाक्य गंधहस्तिमहाभाष्यका ही वाक्य है, इसका संतोषजनक उत्तर कुछ भी मालम: "लूम है। परंतु वास्तवमें ऐसा नहीं है । यह वाक्य महीं होता, और इस लिये हमारी रायमें धर्म राजवार्तिक भाष्यका वाक्य है । राजवार्तिकमें भूषणजीका उपर्युक्त उल्लेख प्रचलित प्रवाद पर । अवग्रहहावायधारणा' इस सत्रपर जो १० ही अवलम्बित है । प्रचलित प्रवाद पर अक्सर वाँ वार्तिक दिया है उसीके भाष्यका यह एक उल्लेख हुआ करते हैं और वे बहुतसे ग्रंथोंमें पाये वाक्य है - । इस वाक्यसे पहले जो वाक्य, जाते हैं । आजकल भी, जब कि गंधहस्ति 'यद्राजवार्तिकं' शब्दोंके साथ,न्यायदीपिकाकी 'महाभाष्यका कहीं पता नहीं और यह भी ऊपरकी पंक्तियोंमें उद्धृत पाया जाता है वह निश्चय नहीं कि किसी समय उसका अस्तित्व उक्त सूत्रका ९ वाँ वार्तिक है । दूसरे शब्दोंमें भी था या कि नहीं, बहुतसे अच्छे अच्छे यों समझना चाहिये कि ग्रंथकर्ताने पहले राजविद्वान् अपने लेखों तथा ग्रंथोंमें गंधहस्ति महा- वार्तिक भाष्यका एक वार्तिक और फिर एक वार्तिभाष्यका उल्लेख परिचत अथवा निश्चित ग्रंथके कका भाष्यांश उद्धृत किया था, जिसको हमारे तौर पर करते हैं, उसे तत्वार्थसत्रकी टीका दोनों पंडित महाशयोंने नहीं समझा और = बतलाते हैं और उसके श्लोकोंकी संख्याका परि- समझनेकी कोशिश की। उनके सामने मूल ग्रंथमें माण तक देते हैं । यह सब प्रचलित प्रवादका - देखो राजवार्तिक, सनातनग्रंथमाला कलकत्तेका ही नतीजा है । कभी कभी इस प्रचलित प्रवा- उपा हुआ।

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