Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 18
________________ ११२ तत्त्वार्थसूत्र पर कोई भाष्य विद्यमान था । रही श्वेताम्बर साहित्यकी बात, सो श्वेताम्बर भाई इस बातको मानते ही हैं कि उनका मौजूदा 'तत्त्वा श्रधिगम भाष्य ' स्वयं उमास्वातिका बनाया हुआ है। परंतु उनकी इस मान्यताको स्वीकार करने के लिये अभी हम तय्यार नहीं हैं। उनका वह ग्रंथ अभी विवादग्रस्त है । उसके विषय में हमें बहुत कुछ कहने सुनने की जरूरत है । इस पर यदि यह कहा जाय कि बादको बने हुए भाष्यों की अपेक्षा बहुत बड़ा होनेके कारण उसे पीछेसे महाभाष्य संज्ञा दी गई है तो यह मानना पड़ेगा कि उसका असली नाम ' गंधहस्ति भाष्य ' अथवा ' गंधहस्ति ' ऐसा कुछ था । ८ - ऊपर जिन ग्रंथादिकों का उल्लेख किया गया हैं उनमें कहीं यह भी जिकर नहीं है कि समन्तभद्रने ८४ हजार श्लोकपरिमाणका कोई ग्रंथ रचा है और इस लिये गंधहस्ति महाभाष्यका जो परिमाण ८४ हजार कहा जाता है. उसकी इस संख्याकी भी किसी प्राचीन साहित्य से उपलब्धि नहीं होती । जैनहितैषी - . ९ - जब उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर ८४ हजार श्लोकपरिमाण एक महत्त्वशाली भाष्य पहलेसे मौजूद था तब यह बात समझमें नहीं आती कि सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोक - वार्तिक के बननेकी ज़रूरत ही क्यों पैदा हुई । यदि यह कहा जाय कि ये ग्रंथ गंधहस्ति महाभाष्यका सार लेकर संक्षेपरुचिवाले शिष्योंके वास्ते बनाये गये हैं तो यह बात भी कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्यों कि ऐसी हालत में श्री पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानंद स्वामी अपने अपने ग्रंथों में इस प्रकारका कोई उल्लेख जरूर करते जैसा कि आम तौर पर दूसरे आचार्योंने किया है, जिन्होंने अपने ग्रंथों को दूसरे ग्रंथोंके आधारपर अथवा उनका सार लेकर बनाया है । परंतु चूँ कि इनमें ऐसा [ भाग १४ कोई उल्लेख नहीं है, इस लिये ये सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथ गंधहस्तिमहाभाष्यके आधार पर अथवा उसका सार लेकर बनाये गये हैं ऐसा माननेको जी नहीं चाहता । इसके सिवाय अकलंकदेव और विद्यानंद के भाष्य वार्तिक के ढंग से लिखे गये हैं । वे ' वार्तिक ' कहलाते भी हैं। और वार्तिकों में उक्त, अनुक्त, दुरुक्त, तीनों प्रकार के अर्थोंकी विचारणा और अभिव्यक्ति हुआ करती है, जिससे उनका परिमाण पहले भाष्योंसे प्रायः कुछ बढ़ जाता है । जैसे कि सर्वार्थसिद्धि से राजवार्तिकका और राजवार्तिक से श्लोकवार्तिकका परिमाण बढ़ा हुआ है । ऐसी हालत में यदि समन्तभद्रका ८४ हजार श्लोक. संख्यावाला भाष्य पहलेसे मौजूद था तो अकलंकदेव और विद्यानंदके वार्तिकों का परिमाण: उससे जरूर कुछ बढ़ जाना चाहिये था । परंतु बढ़ना दूर रहा, वह उलटा उससे कई गुणा घट रहा है । दोनों वार्तिकों की श्लोकसंख्या का परिमाण क्रमशः १६ और २० हजारसे अधिक नहीं, ऐसी हालत में कमसे कम अकलंकदेव और विद्यानंदके समय में गंधहस्ति महाभाष्यका अस्तित्व स्वीकार करनेके लिये तो और भी हृदय तय्यार नहीं होता । १० - जिस आप्तमीमांसा ( देवागम स्तोत्र ) को गंधहस्ति सहाभाष्यका मंगलाचरण बतलाया जाता है उसकी अन्तिम कारिका इस प्रकार है इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छतां । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ यह कारिका जिस ढंग और जिस शैलीसे लिखी गई है और इसमें जो कुछ कथन किया: गया है उससे आप्तमीमांसाके एक बिलकुल : स्वतंत्र ग्रन्थ होनेकी बहुत ज्यादह संभावना पाई जाती है। इस कारिका को देते हुए व सुनन्दी आचार्य अपनी टीकामें इसे 'शास्त्रार्थोपसंहारकारिका' लिखते हैं, साथ ही इस कारिकाकी

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