Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ अङ्क ४] गन्धहास्ति महाभाष्यकी खोज। १११ लिखा है। समन्तभद्रका अस्तित्वकाल इन सब दूसरे सिद्धान्त ग्रन्थ ( कषाय प्राभृत ) पर टीका टीकाओंके बननेसे पहले माना जाता है । यदि लिखना चाहते थे परंतु उनके एक सधर्मी साधुइन टीकाओंके रचयिता पूज्यपाद, अकलंकदेव, ने द्रव्यादिशुद्धिकर प्रयत्नोंके अभावसे उन्हें वैसा विद्यानन्द और श्रुतसागरके समयोंमें समन्तभ- करनेसे रोक दिया । बहुत संभव है कि इसके 'द्रका उसी सूत्रपर ऐसा कोई महत्त्वशाली भाष्य बाद उनके द्वारा कोई बड़ा ग्रंथ न लिखा विद्यमान होता तो उक्त टीकाकार किसी न किसी गया हो। रूपमें इस बातको सूचित जरूर करते, ४-श्रवणबेल्गुलके जितने शिलालेखोंमें ऐसा हृदय कहता है । परंतु उनके टीकाग्रंथोंसे समंतभद्रका नाम आया है उनमेंसे किसी भी ऐसी कोई सूचना नहीं पाई जाती । प्रत्युत, आचार्य महोदयके नामके साथ 'गंधहस्ति महाश्रुतसागर सूरिने अपने अध्ययन-विषयक अथवा भाष्य' का उल्लेख नहीं है। और न यही लिखा टीकाके आधार-विषयक जिन प्रधान ग्रन्थोंका मिलता है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर कोई उल्लेख अपनी टीकाकी संधियोंमें किया है टीका लिखी है । हाँ, उनके शिष्य शिवकोटि उनमें साफ तौरसे श्लोकवार्तिक और सर्वार्थ- आचार्यके सम्बंधमें इतना कथन जरूर पाया सिद्धिका ही नाम पाया जाता है, गंधहस्ति जाता है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रको अलंकृत महाभाष्यका नहीं । यदि ऐसा महान ग्रंथ किया, अर्थात् उसपर टीका लिखी । (देखो उन्हें उपलब्ध होता तो कोई वजह नहीं थी कि शि० लेख नं० १०५) वे उसका भी साथमें नामोल्लेख न करते । ५-ब्रह्मनेमिदत्तने आराधना कथाकोशमें - २---- आप्तमीमांसा ( देवागम ) पर, जिसे समन्तभद्रकी एक कथा दी है परंतु उसमें उनके गंधहस्तिमहाभाष्यका मंगलाचरण कहा जाता किसी भी गंधहस्तिमहाभाष्यके नामकी कोई है; इस समय तीन संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं। उपलब्धि नहीं होती। एक 'वसुनन्दिवृत्ति,' दूसरी, ‘अष्टशती' ६–संस्कृत प्राकृतके और भी बहुतसे उप और तीसरी ' अष्टसहस्री' । इनमेंसे किसी भी लब्ध ग्रंथ जो देखनेमें आये और जिनमें किसी टीकामें गंधहस्ति महाभाष्यका कोई नाम नहीं न किसी रूपसे समन्तभद्रका स्मरण किया गया है, और न यही कहीं सूचित किया है कि यह है उनमें भी हमें स्पष्टरूपसे कहीं गंधहस्ति महाआप्तमीमांसा ग्रंथ गंधहस्ति महाभाष्यका मंगला- भाष्यका नाम नहीं मिला । और दूसरे अनेक चरण अथवा उसका प्राथमिक अंश है। किसी विद्वानोंसे जो इस विषयमं दोफ्त किया गया तो दूसरे ग्रंथका एक अंश होनेकी हालतमें यही उत्तर मिला कि गंधहस्ति महाभाष्यका ऐसी सूचनाका किया जाना बहुत कुछ नाम किसी प्राचीन ग्रंथमें हमारे देखने में नहीं स्वाभाविक था। आया, अथवा हमें कुछ याद नहीं है। .३–श्रीइन्द्रनन्दि आचार्यके बनाये हुए .७-ग्रंथके नाममें 'महाभाष्य' शब्दसे " श्रुतावतार' ग्रंथमें भी समन्तभद्र के साथ, जहाँ यह सूचित होता है कि इस ग्रंथसे पहले भी कर्मप्राभूतपर उनकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण तत्त्वार्थसूत्रपर कोई भाष्य विद्यमान था जिसकी 'एक सुंदर संस्कृतटीकाका उल्लेख किया गया अपेक्षा इसे 'महाभाष्य' संज्ञा दी गई है। है. वहाँ, गंधहस्ति महाभाष्यका कोई नाम नहीं परंतु दिगम्बर साहित्यसे इस बातका कहीं कोई है। बल्कि इतना प्रकट किया गया है कि वे पता नहीं चलता कि समन्तभद्रसे पहले भी

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