Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ और समता। अङ्क ४] गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज। १०९ गंधहस्तिमहाभाष्यकी खोज पत्रों द्वारा यह प्रकट हुआ था कि पूना लायब्रे रीकी किसी सूची परसे आस्ट्रिया देशके एक नगरकी लायब्रेरीमें उक्त ग्रंथके अस्तित्वका पता , आप्तमीमांसा ( देवागम) की चलता है । साथ ही, उसकी कापी करनेके लिये दो एक विद्वानोंको वहाँ भेजने और खर्चके लिये स्वतंत्रता। कुछ चंदा एकत्र करनेका प्रस्ताव भी उपस्थित कहा जाता है कि भगवान श्रीसमन्तभद्रा- किया गया था । हम नहीं कह सकते कि ग्रंथके चार्यने तत्त्वार्थसत्र पर 'गंधहस्ति महाभाष्य' अस्तित्वका यह समाचार कहाँ तक सत्य है नामके एक महान ग्रंथकी रचना की थी, और इस बातका यथोचित निर्णय करनेके लिये जिसकी श्लोकसंख्याका परिमाण ८४ हजार अभी तक क्या क्या प्रयत्न किया गया है। है । यह ग्रंथ भारतके किसी भी प्रसिद्ध भंडा- परंतु इतना जरूर कहेंगे कि बहुतसे भंडारोंकी रमें नहीं पाया जाता । विद्वानोंकी इच्छा इस सूचियाँ अनेक स्थानों पर भ्रमपूर्ण पाई जाती ग्रंथराजको देखनेके लिये बड़ी ही प्रबल है। हैं । पूना लायब्रेरीकी ही सूची में सिद्धसेन दिवाबम्बईके सुप्रसिद्ध सेठ श्रीमान् माणिकचंद करके नामसे 'वादिगजगंधहस्तिन' नामके हीराचंदजी जे० पी० ने इस ग्रंथरत्नका दर्शन एक महान ग्रंथका उल्लेख मिलता है जो यथार्थ मात्र करानेवालेके वास्ते ५००) रुपयेका नकद नहीं है । वहाँ इस नामका कोई ग्रंथ नहीं । भी निकाला था । परंतु खेद है कि यह नाम किसी दूसरे ही ग्रंथके स्थान पर गलकोई भी उनकी इस इच्छाको पूरा नहीं कर तीसे दर्ज हो गया है। ऐसी हालतमें केवल सका और वे अपनी इस महती इच्छाको हृदयमें सूचीके आधार पर आस्ट्रिया जैसे सदूरदेशकी रक्खे हुए ही इस संसारसे कूच कर गये। यात्राके लिये कुछ विद्वानोंका निकलना और निःसन्देह जैनाचार्यों में स्वामी समन्तभद्रका भारी खर्च उठाना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। आसन बहुत ही ऊँचा है। वे एक बड़े ही अपूर्व बेहतर तरीका, इसके लिये, यह हो सकता है और अद्वितीय प्रतिभाशाली आचार्य हो गये कि वहाँके किसी प्रसिद्ध फोटोग्राफरके द्वारा उक्त हैं । उनका शासन महावीर भगवानके शास- ग्रंथके आयतके १०-२० पत्रोंका फोटो पहले नके तुल्य समझा जाता है और उनकी मँगाया जाय और उन परसे यदि यह निर्णय आप्तमीमांसादिक कृतियोंको देखकर बड़े बड़े हो जाय कि वास्तवमें यह ग्रंथ वही महा भाष्य वादी विद्वान् चकित होते हैं। ऐसी हालतमें ग्रंथ है तो फिर उसके शेष पत्रोंका भी फोटो आचार्य महाराजकी इस महती कृतिके लिये आदि मँगा लिया जाय । अस्तु; ग्रंथके वहाँ निसका मंगलाचरण ही आप्तमीमांसा (देवा- अस्तित्व विषयमें अभी तक हमार। कोई विश्वास गम) कहा जाता है, यदि विद्वान लोग नहीं है । आस्ट्रियाके एक प्रसिद्ध नगरकी उत्कंठित और लालायित हों तो इसमें कुछ भी, प्रसिद्ध लायब्रेरीमें उक्त ग्रंथ मौजूद हो और आश्चर्य और अस्वाभाविकता नहीं है । और यही हर्मन जैकोबी जैसे खोजी विद्वानोंको उसका कारण है कि अभी तक इस ग्रंथरत्नकी खोजका पता तक न लगे, यह बात कुछ समझमें नहीं प्रयत्न जारी है और अब विदेशोंमें भी उसकी आती । हमें इस ग्रंथके विषयमें यह बात भी तलाश की जा रही है । हालमें कुछ समाचार- बहुत खटकती है कि 'आप्तमीमांसा' अर्थात्

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