Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ अङ्क ४] वनवासियों और चैत्यवासियोंके सम्प्रदाय । १०७ हो-आश्चर्य नहीं जो खोज करनेसे बनारसी- बिलकुल ही न रखना, या मोरपंखोंके बदले दासजीके पहलेके ग्रन्थों में इन विचारोंका गायके पंछके बालोंकी पिच्छी रखना, खडे होनेके उल्लेख भी मिल जाय; परन्तु जान पड़ता है कि बदले बैठकर भोजन करना, अथवा सूखे चनोंउन्हें विशेष सफलता नहीं मिली और पं० बना- को प्रासुक मानना, ये सब बातें इतनी संगीन 'रसीदासजीके एक प्रतिभाशाली विद्वान् होनेके नहीं थीं कि इनके कारण ये सब 'जैनाभास' कारण वे ही इस मतके प्रवर्तक होनेका श्रेय करार दिये जाते । पुन्नाटसंघी या द्रविड़संघी प्राप्त कर सके। जिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणको हम निरन्तर तेरहपन्थ और बीसपन्थकी मानताओंमें पढ़ते हैं, माथुरसंघी अमितगति आचार्यके जितने भी भेद हैं या बतलाये जाते हैं, उन श्रावकाचार, धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह सबका मूल, मठवासियों या भट्टारकोंके शिथि- आदि कई ग्रन्थोंका हमारे यहाँ खासा प्रचार लाचारके सिवाय और कुछ भी नहीं है । यह है, काष्ठसंघके भी प्रद्युम्नचरित आदि कई ग्रन्थ विषय बिलकुल निर्विवाद है । अतः यह बात हमारे यहाँ पढ़े जाते हैं । परन्तु इनसे यह नहीं दृढ़तापूर्वक कही जा सकती है कि पुराने मठ- मालम होता कि इनमें दिगम्बरसम्प्र वासियोंके मार्गका ही नाम बीसपन्थ और जैनाभासत्वका प्रचार किया गया है । तब इनके उनके विरोधी वनवासियों या शुद्धाम्नायियोंके प्रवर्तकोंको देवसेनसूरिने महा पापी, मिथ्याती मार्गका नाम तेरहपन्थ है। क्यों बतलाया है ? यद्यपि अभी निश्चयपूर्वक नहीं कहा हमारा अनुमान है कि इनके साथमें मूलसंघजा सकता परन्तु ऐसा मालूम होता है कि का वही नाता था जो तेरहपन्थका बीसपूर्वोक्त ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दिके भी पहले पन्थके साथ है । अर्थात् ये सब उस समयके दिगम्बर शाखामें मठवासियोंके ढंगके और शिथिलाचारी थे और मूलसंघ शुद्धाम्नायी भी कई बार कई पन्थ जन्म ले चुके हैं, 'मूलसंघ' का 'मूल' शब्द हमारे उक्त जिनके शिथिलाचारका निषेध उक्त शताब्दियोंसे अनुमानको और भी अधिक पुष्ट करता भी पहलेके ग्रन्थोंमें पाया जाता है। है । यह शब्द बतलाता है कि मूलसंधी अपनेको __ ऐसे कई पन्थोंकी उत्पत्ति आदिका विवरण भगवान् महावीरके मूलमार्गका अनुसरण करनेवि० सं० ९९० में लिखे हुए 'दर्शनसार ' में वाला समझते थे और काष्ठासंघी आदिको मिलता है । ये पन्थ चार हैं-१ यापनीय, शिथिलाचारी। २ काष्ठासंघ. ३ माथुरसंघ, और द्रविड़संघ । पेसा जान पड़ता है कि इन मंघोंके माश इनमेंसे यापनीयसंघ तो दिगम्बर और श्वेताम्बर मूलसंघका सिद्धान्त-भेद तो विशेष नहीं था, दोनों शाखाओंका एक मिश्रित मार्ग था; परन्तु जैसा कि तेरहपंथियोंका बीसपंथियोंके साथ शेष तीन शुद्ध दिगम्बरी थे । फिर भी वे नहीं है, परन्तु इन संघोंके साधुओंमें शिथिला‘जैनाभास' बतलाये गये हैं। - चार बढ़ गया होगा, अर्थात् ये लोग मठवासी __इन तीनों संघोंका जो स्वरूप दर्शनसारमें और परिग्रहधारी आदि हो गये होंगे और इसी दिया है उससे और इनके उपलब्ध ग्रन्थोंसे तो लिए ये जैनाभास करार दिये गये थे। . यह बात समझमें ही नहीं आती है कि ये देवसेनसूरिने द्राविडसंघके उत्पादक वज्रसब जैनाभास क्यों बतलाये गये । पिच्छी नन्दिके विषयमें लिखा है कि

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