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अङ्क ४]
वनवासियों और चैत्यवासियोंके सम्प्रदाय। . आत्मानुशासनकी संवत् ८५५ की उस उक्तिसे बीसपन्थ नामसे उक्त मार्ग क्यों प्रसिद्ध किये मिलती है जिसमें उन्होंने मुनियोंकी उपमा गये और इन नामोंका मूल क्या है । इस विनडरपोक मृगोंसे दी है और उसके आगेकी यमें जो कई प्रवाद और किंवदन्तिया प्रसिद्ध हैं, अवस्थाकी झलक सं० १०१६ के यशस्ति- हमारी समझके अनुसार उनमें कोई तथ्य लककी उस उक्तिसे मिलती है जिसमें उन्होंने नहीं है और उनसे इनकी असलियत पर कुछ उस समयके मुनियोंको पूर्वकालके मुनियोंकी भी प्रकाश नहीं पड़ता है। छाया बतलाया है।
हमारे खयालमें ये दोनों नाम बहुत प्राचीन अर्थात् मौटे हिसाबसे यह कहा जा सकता नहीं है, डेड़ सौ दो सौ वर्षसे पहलेके साहित्यमें है कि विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिमें दिगम्बर इनका उल्लेख नहीं मिलता। बहुत संभव है कि मनि मन्दिर-मठवासी हो गये थे और बारहवीं श्वेताम्बर शाखाके 'तेरापन्थी' (ढूंढक) शताब्दिमें उन्होंने मठपति बननेका प्रारंभ कर सम्प्रदायके साथ समानता करते हुए व लाम दिया था।
इन्हें 'तेरापन्थी' कहने लगे हों जो भट्टारकोंपरन्तु इससे दृढतापूर्वक यह नहीं कहा जा को अपना गुरु मानते थे तथा इनसे द्वेष रखते सकता कि बारहवीं या तेरहवीं शताब्दिके बाद थे और धीरे धीरे उनका दिया हुआ यह कच्चा शुद्धाचारी दिगम्बर मुनियोंका अभाव ही हो ‘टाइटिल पक्का हो गया हो; साथ ही वे स्वयं गया था, अथवा सारा जैन जनसमुदाय शिथि- इनसे बड़े ‘बीसपन्थी' कहलाने लगे हों। लाचारियोंका ही शासन मानने लगा था । यद्यपि तीनसौ चारसो वर्षके पिछले भाषाके ग्रन्थों कालके प्रभावसे तथा देशकी राजनीतिके और और भट्टारकोंके बनाये हुए संस्कृत ग्रंथोंकी सामाजिक परिस्थितियोंके परिवर्तनके कारण जाँच करनेसे तेरह और बीसपन्थके इतिहासकी दिगम्बर मुनियोंकी विरलता भगवद्णभद्रके अनेक बातोंका पता लग सकता है। समयसे ही लक्षित होने लगी थी और तेरहवीं यह निश्चय है कि जिस समय मठवासिशताब्दिके लगभग तो वह और भी बढ़ गई योंका मार्ग प्रारंभ हुआ होगा, उसी समय उनके होगी; परन्तु शुद्ध शास्त्रोक्त आचारोंके पालने- विरोधी भी खड़े हो गये होंगे, परन्तु ऐसा मालूम वाले मुनि भी यत्र तत्र अवश्य दिखलाई देते होता है कि उन विरोधियोंके दलबद्ध होनेमें होंगे और उनके उपासकोंकी भी कमी न और अपना स्वतंत्र पंथ बना लेनेमें बहुत समय रहा होगी।
लग गया होगा । आश्चर्य नहीं, जो इस दलके जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन इतने शक्तिशाली होने में कि वह शिथिलाचामठवासी और मठपतियोंका जो मार्ग प्रचलित रियोंका निर्भय होकर विरोध करे, २००-३०० हुआ था, वही आगे चलकर 'बीसपन्थ' कहलाया वर्ष भी लग गये हों।
और जिन लोगोंने उसे नहीं माना, तथा जो अभी तक कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला वनवासी साधुओंको ही पूज्य या गुरु मानते है. जिससे एक जदे दल या पन्थके रूपमें इस रहे, उनका मार्ग 'तेरहपन्थ' के नामसे भट्टारक-विरोधी मार्गका अस्तित्व विक्रमकी प्रकट किया जाने लगा।
__सत्रहवीं शताब्दिके पहले माना जाय। संभव ___ इस बातकी खोज और छानबीन होनेकी है कि खोज करनेसे इसके पहले भी इसके - बहुत बड़ी आवश्यकता है कि तेरहपन्थ और अस्तित्वका पता चल जाय, परन्तु अभी तक तो