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कीर्ति स्वामीने ऐसा उपदेश दिया कि संयमी - मुनियोंको चर्या आदिके समय ( आहारको जाते वक्त ) चटाई, टाट आदिसे शरीरको ढक लेना चाहिए और फिर चटाई आदि छोड़ देना चाहिए । यह अपवाद वेष है * । चित्तौरकी गद्दी के भट्टारकोंकी नामावली में वसन्तकीर्तिका नाम आता है । वे संवत् १२६४ में हुए हैं और संभवतः श्रुतसागरने इन्हीं वसन्तकीर्तिको अपवाद वेषका प्रचारक बतलाया है । इससे भी पं० आशाधरके इस कथन की पुष्टि होती है कि उस समय १३ वीं शताब्दिमें, अष्टचास्त्रि द्रव्यजिनालिङ्गधारी मुनि थे और उन्होंने जिनशासनको "मलिन कर डाला था
।
* देखो, जैनहितैषी भाग १३, अंक ८, पृष्ठ ३६८ ।
x इन्हीं श्रुतसागरसूरिने अपनी तत्त्वार्थसूत्र की टीकामें इस बातको स्वीकार किया है कि द्रव्यलिंगी साधु शीतकालमें कंबलादिक ले लेते हैं और दूसरे समय में त्याग देते हैं:
जैनहितैषी -
" लिङ्गं द्विभेदं द्रव्यभावलिंगभेदात् । तत्र भावलिङ्गिनः पञ्चप्रकारा अपि निर्ग्रन्था भवन्ति । द्रव्य लिङ्गिनः असमर्था महर्षयः शतिकालादौ कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरतीति भगवत्याराधना प्रोक्ताभिप्रायेण कुशीलापेक्षया वक्तव्यम् । " ( " संयम श्रुतप्रतिसेवनादि ' सूत्रकी टीका । )
परमात्मप्रकाशकी टीकामें उसके टीकाकार ब्रह्मदेव भी शक्ति के अभाव में साधुको तृणमय प्रावरणादिक अर्थात् घासका उत्तरीय वस्त्र आदिको रखनेकी, परन्तु उस पर ममत्व न रखनेकी, इजाजत देते हैं:“परमोपेक्षा संयमाभावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थ विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपःपर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपान
संयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोति ॥
किमपि
( परमात्मप्रकाशटीका, गाथा २१६, पृष्ठ २३२ ) ये ब्रह्मदेवजी भी १६ वीं शताब्दिके लगभग
हुए हैं ।
[ भाग १४
यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पं० आशाधरने शिथिलाचारी मुनियोंको चैत्यवासी या मठवासी न लिख कर 'मठपति ' लिखा है और उनके आचरणको ' लोकशास्त्रविरुद्ध बतलाया है । इससे यह स्पष्ट होता है कि वे वनोंको छोड़कर मठों में केवल रहते ही नहीं थे किन्तु भट्टारकों के समान मठोंका आधिपत्य भी किरते थे । शतपदीके आक्षेपोंसे भी यही ध्वनित होता है ।
अनगारधर्मामृतटीका वि० सं० १३०० में समाप्त हुई है और शतपदी १२९४ में । शतपदी यद्यपि १२९४ में बनी है; परन्तु वह धर्मघोषसूरिकृत प्राकृत शतपदीका संस्कृत अनुवाद है जो कि सं० १२६३ की बनी हुई है । अर्थात् १२६३ से भी पहले दिगम्बर मुनियोंके आचरण उस तरहके हो गये थे जिस तरहके कि शतपदीके आक्षेपोंसे मालूम होते हैं । चित्तौरके भट्टारक वसन्तकीर्तिका भी यही समय है ।
इस तरह के शिथिलाचारोंकी प्रवृत्ति एकदम नहीं हो जाती, उनके प्रचलित होने में और मान्य होनेमें सैकड़ों वर्ष लगते हैं । हम यह मान लें कि इस प्रवृत्तिके प्रचलित होने में सवा सौ डेड़ सौ वर्ष लगे होंगे तो कहना होगा कि विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के प्रारंभ में बहुत से दिगम्बर मुनि मठवासी हो गये होंगे और इस रूप में उनकी मानता भी होने लगी होगी ।
इन मठपतियोंकी अवस्थाके पहले दिगम्बर मुनि एक अवस्थामेंसे और भी गुजर चुके होंगे, अर्थात् मठोंके स्वामी बनने के पहले केवल मठों या मन्दिरोंमें रहते होंगे । उस समय वे पूर्ण नग्नावस्था में रहते होंगे, परिग्रह भी उनके पास थोड़ा होगा; परन्तु वनों में उनसे न रहा जाता होगा और उग्र चर्याका भी उनसे पालन न होता होगा । इसी अवस्थाके प्रारंभकी झलक हमें