Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 11
________________ सत्य के दर्शन नहीं हो सके हैं उनकी ओर से ऐसी पुस्तक का विरोध होना भी स्वाभाविक था, किन्तु आश्चर्य है कि इसका विशेष विरोध करनेकी किसी की हिम्मत नहीं हुई। यह गौरव मुझे अपनी कृति पर नहीं, किंतु जैनधर्म के उदारता पूर्ण उन प्रमाणों पर है, जो इस पुस्तक में दिये हैं और जो सर्वथा अखंडनीय हैं। ___हां, उदारता के खण्डन करने का कुछ प्रयास श्री० पं० विद्यानन्दजी शर्मा ने अवश्य किया था। किंतु उनकी लेख माला इतनी अव्यवस्थित, अक्रमिक एवं प्राणहीन रही कि वह २-३ वार में ही बन्द होगई । शर्माजी दो तीन माहमें उदारता के किसी प्रकरणके किसी अंश पर कभी कभी २-४ कालम जैन गजट में लिख डालते थे और फिर चुप्पी साध लेते थे। इस प्रकार उन्हें करीब ६माह हो चुके होंगे। किन्तु वे अभी तक न तो इस क्रम में सफलता पा सके हैं आर न धारावाही खण्डन करने के लिये उनके पास सामग्री ही मालूम होती है। मैं इस प्रतीक्षा में था कि वे जरा ढंग से यदि खण्डन पूरा कर देते तो मैं उनका पूर्ण समाधान द्वितीयावृत्ति में कर देता। किन्तु खेद है कि वे ऐसा करनेमें असमर्थ रहे हैं। इस लिये मैं भी जैनमित्र में उनका थोड़ासा उत्तर देकर रहगया। अस्तु ___उदारचेता सज्जनो ! जैन धर्म की उदारता तो ऐसी है कि यदि उसे निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो अन्तःकरण सादी देगा कि जैनधर्म जैसी उदारता अन्यत्र नहीं है। यह धर्म घोर से घोर पापियों को पवित्र करता है, नीच से नीच मानवों को उच्च बना सकता है और पतित से पतित प्राणियों को शुद्ध करके सबको समानं बना सकता है । इसकी उदारता को देखिये और उसका प्रचार करिये। इसका उपयोग करिये तथा जन सेवा करके बिचारे भले भटके भाइयोंको इस मार्ग पर लगाइये । यही मनुष्य भवकी सफलता है। चन्दाबाडी-सूरत परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ १२-१२-३५ संपादक-'मीर'

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