Book Title: Jain Dharm ki Udarta
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 82
________________ namam ७२ . जैनधम की उदारता . प्रायश्चित्त मार्ग। यह कितने खेद का विषय है कि हमारी पंचायतें शास्त्रीय आज्ञा का विचार न करके और अपने निर्णय के परिणाम को नं. सोचकर मात्र पक्षपात, रूढि या अभिमान के वशीभूत होकर जरा जरा से दोषों पर अपने जाति भाइयों को वहिष्कृत कर देती हैं। और उनका मन्दिर तक वन्द करके धर्म कार्य से रोक देती हैं। उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि किसी का भी मन्दिर बन्द करने से या दर्शन रोकने से या पूजा कार्य करने से भयङ्कर पाप का बंध, होता है । यथाः खयकुदृसूलमूलो लोय भगंदरजलोदरक्खिसिरो। सीदुण्हवह्मराई पूजादाणन्तरायकम्मफलं ॥३३॥ .. रयणसार अर्थात्-किसी के पूजन और दान कार्य में अन्तराय करने से ( रोकने से ) जन्म जन्मातर में क्षय, कुष्ठ, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्र पीड़ा, शिरोवेदना, आदि रोग तथा शीत उष्ण के आताप और कुयोनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। ___इस से स्पष्ट सिद्ध है कि हमारी पंचायतें किसी का मन्दिर बन्द करके उसे दर्शन पूजा से रोक कर घोर पाप का बन्ध करती हैं। किसी शास्त्र में मन्दिर वन्द करने की आज्ञा नहीं है। हो, अन्य अनेक प्रायश्चित बताये गये हैं। उनका उपयोग करना चाहिये। • घोर से घोर पाप का प्रायश्चित होता है। जैनधर्म की उदारता ही इसी में है कि वह नीच से नीच पापी को शुद्ध कर सकता है और. उसका उद्धार कर सकता है । इसके कुछ शास्त्रीय प्रमाण इस प्रकार हैं। पहले ही पहले जघन्य श्रीवकों के प्रमाद वश (कपाय से)

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